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________________ ४२० यशस्तिलक चम्पूकाव्ये || १७९॥ यः कण्टकं तुदत्यङ्गं श्वस्कार प्रयोग लो ज्योतिबिन्दुः कला नावः कुण्डली वायुसंचरः । मुद्रा मण्डलचीखानि 'निर्बीजीकरणा विकम् ।।१८० ।। करना), विभ्रम (तत्व व अतत्व में सदृश बुद्धि ), अलाभ आत्मा व अनात्मा का ज्ञान न होने से अभ्यास किये हुए तत्व की प्राप्ति न होना), सङ्गिता (तत्वज्ञान होने पर भी मुख-साधनों में हर्ष व दुःख -साधनों में द्वेष का आग्रह करना) व अस्थेयं ( ध्यान के कारणों में मन की अशान्ति अर्थात् मन को न लगाना ) ॥ १७८ ॥ धर्मयानी का कर्त्तव्य जो फॉटों से ध्यानी का शरीर व्यथित करता है और जो उसके शरीर पर चन्दनों का लेप करता है ऐसे शत्रु-मित्रों पर जिसका अभिप्राय क्रम से द्वेष व राग से असम्पृक्त ( नहीं हुआ हुआ ) है, ऐसे घमंत्र्यानी को पाषाण-घटित सरीखा होकर ध्यान में स्थित होना चाहिए ।। १७९ ।। [ अब अन्य मत संबंधी ध्यान कहकर उसको समीक्षा करते हैं 1 तान्त्रिकों को मान्यता है कि योगी पुरुष ज्योति ( ओंकार की आकृति का ध्यान, अर्थात् यथाfafa प्रणवमन्य ( ओंकार ) का जप करना ), बिन्दु पीस व शुभ्र आदि विन्दुका दर्शन ( प्राणायाम विधि के अवसर पर मुख के दक्षिण भाग पर व वाम भागपर क्रम से दाहिनी व बाई हस्ताङ्गुलियों का तत्तत्स्थानों पर स्थापन करने के बाद जैसे कानों में अ को, नेत्र प्रान्त में तर्जनी को, नासापुट में मध्यमा अङ्गुलो को, कर्धं ओष्ठ के प्रान्त भाग में अनामिका और अधरोष्ठ के प्रान्त भाग में कनिष्ठिका मङ्गुली को स्थापित करना चाहिए इसके बाद अन्तर्दृष्टि द्वारा अवलोकन करने पर विन्दु का दर्शन होता है जैसे पीतविन्दु के दर्शन से पृथिवी तत्व का, श्वेत बिन्दु के दर्शन से जलतत्व का, अरुणबिन्दु के दर्शन से तेजतत्व का श्याम बिन्दु के दर्शन से वायुतत्व का और पीतादिवर्ण-रहित परिवेषमात्र के दर्शन से आकाश तत्व का ज्ञान होता है ), कला ( अर्धचन्द्र), नाद (अनुस्वार के ऊपर रेखा ), कुण्डली ( प्राणियों की पिङ्गला नाम की दक्षिण नाही व इड़ा नाम की मनी एवं मध्यवर्ती सुषुम्ना नाड़ी, अर्थात् प्राणायाम - विधि में वायु का संचार ढाई घड़ी पर्यन्त पिङ्गला व इडा नाड़ी द्वारा होता है- इत्यादि ) व वायु-संचार ( कुम्भक नासापुट द्वारा शरीर के मध्य प्रविष्ट की जानेवाली घटाकर वायु, पूरक - वाह्य वायु को पूर्ण शरीर में प्रविष्ट करना व रेचक कोष्ठ वायु का वाहिर निकालना इत्यादि, श्वास ( बाह्य वायु को नासापुट द्वारा शरीर के मध्य स्थापित करना व प्रश्वास ( कोष्ठ्य १. अविषितात्मा असंक्ताशयः । २ॐकारस्याकारेण बिन्दुकलादीनामाकारेण व निर्बीजीकरणं कर्म करोति, तदवसाने मरणस्य जयो भवतीति मिथ्यादृष्टयः कथयन्ति तदसत्यं । बिन्दुः ( तथा चोकं 'पीतश्वेताणश्यामबिन्दु मि निरुपाधि खम्' सं० टीका पीतवर्ण बिन्दो दृष्टे पृथिवीतत्त्वं वहतीतिशेयं श्वेतबिन्दुदर्शने जलतत्वं अरुणविन्दुदने तेजस्तत्वम्, श्यामबिन्दुदर्शने वायुतत्वं, पीतादिवर्णरहित परिश्रमाने आकाशतत्वमिति । उपाधि शब्देन पीतादयो वर्णा गृह्यन्ते । खमाकादाम् यथावद्वायुतत्वमवगम्य तत्त्रियमने विधीयमाने विवेकज्ञानावरणकर्मयो भवति, तपो न परं प्राणायामात् । सं०] टीका — उत्तरीत्या श्वासोच्छ्वासतवं विज्ञाय प्राणायामेन वायोनिरोषे ते विवेकज्ञानाच्छादकं कर्म श्रीयते' । सर्वदर्शनसंग्रह पातलदर्शनप्रकरण पृ० ३८० से संकलित — सम्पादक) अर्धचन्द्र कला, अनुस्वारस्योपरि रेखा स नावः कथ्यते । कुण्डको तदाकारेण बीजीकरणम् । ३. त्रिकोण चतुष्कोणादि बहुप्रकाएं देन बहुवचनं । ४. प्रेर्याणि । ५ यदा मरणवेला वर्तते तदा निजीकरणं क्रियते ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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