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________________ - यशस्तिलकचम्पूकाव्ये नीया बशामाधिस्य तेन भगवता सह विपरमाणावधागतो समापतो भबबूटानयनमरादेतत्समान्तरम् । धर्माध. पानयलरत्नबीपौप्तिबिरिसमतिमिथ्यात्वमहाम्पकारवृत्ती मारिततः प्रतिक्षणं शुभाशयामृतप्रवाहविग कमिशिसाञ्जनः सपारपुरवेशतापरिजनः पुरा स्वयं दुर्वासनया च कृतेषु निरवधिषु बुधरिप्रेष्यतोषयीभत्सवान्तःशाल्यित इव कृतशरोरविमानस्सन्मुनिकुमारमिथुमकमानाविमं समस्तमपि संसारसुखमंगमं स्वप्नेन्द्रजालसमं समाकर्णयकरकमलमुकुलावधूलमौलिः सबहुमानमम केलित मुनिकुमारमेषमभावत-'अहो विक्ष बनाय, निःसामात्मसुकृतसुलभदर्शनसनाप, बुरन्तपातालपतञ्जन्तुहस्तावलम्ब, मिखिलभुवनमानसोल्लासन, शर्मधर्मामृतवार्य प्रतिबिम्ब, हिताहितविवेकदिङमूहविषुरपाषव, लोकपीणनाचाराश्रयश्रीमाधव, खलीकृतसकलमगज्जयोशरमार, मुनिकुमार, निःशेषलोकायुद्ध रणजन्मना परमाप्तसमवमना वैवाषाप्तालोकनेन तत्रभवतानुग्रहणीयः खल्वयं जनः स्वकीयाचारणसमानभाजनतया । मुनिकुमार:निसर्गसुङ्गिमानवमन्दर, करणारसस्पन्दकन्दर, समाकर्णय। स्वभावमष्यस्य विविसवितव्यस्य हि भवतः सर्वमुपइस राजपुर के उद्यान में आए ! पश्चात् आपके कोट्टालों को लाने की विशेषता से इस सभा के मध्य (चण्डमारी देवी के मन्दिर में ) प्राप्त हुए । तत्पश्चात् मारिदत्त महाराज ने धर्मतत्व के मनोयोग पूर्वक श्रवण करने के प्रयत्न रूपी रत्न की दीप्ति से अपनी बुद्धि का मिथ्यात्व रूपो गाढ़ व गृहीत अन्धकार नष्ट कर डाला। प्रत्येक क्षण में शुभ परिणाम रूपो अमृतप्रवाह से गल रहे समस्त पापरूपी अजनवाले और नागरिक लोक, नगर देवता (चण्डमारी देवी )व सेवकों से सहित हए मारिदत महाराज ने पूर्व में स्वयं दर्वासना ( दृष्ट आभप्राय) से किये हुए वमयाद पापों से विशेष घृणा होने से भीतर चुभी हई शल्य ( कोला) से ध्याप्त हएसरीखे होकर अपना शरीर कम्पित किया। जो उस क्षुल्लक जोड़े की कथा-श्रवण से इस समस्त सांसारिक सुख-सङ्गम को स्वप्न व इन्द्रजाल सरीखा निश्चय कर रहा है एवं जिसने हस्तरूपी कमल कलियों का अपने मस्तक पर मुकुट धारण किया है और जिसकी मानसिक क्रीड़ा [ प्रस्तुत क्षुल्लक जोड़े का ] अतिशय सम्मान करनेवाली है, ऐसे होते हुए प्रस्तुत क्षुल्लक जोड़े से निम्न प्रकार कहा अहो मुनिकुमार ! आप विद्वानों के स्वामी है. असाधारण पुण्य से प्राप्त होने योग्य दर्शन से सम्पन्न हैं, दुष्ट फलबाले पातालतल में पड़ते हुए प्राणियों को हस्तावलम्बन ( सहारा देने वाले हैं, समस्त लोकों के चित्तों को उल्लासित ( प्रमुदित ) करने वाले हैं, सुख व धर्मरूपो अमृत वृष्टि को प्रतिच्छाया हैं एवं हित व अहित के विवेक में दिड मूढ़ हुए सन्तप्त प्राणियों के बन्दु हैं, विष्णु-सरीखे लोक को सन्तुष्ट करनेवाले चारित्र के आधार हैं और समस्त जगत को जीतनेवाले पुष्प या कामवाण (कामदेव) को जीतने वाले हैं। ऐसे हे मुनिकुमार ! समस्त लोक के उद्धार-हेतु जन्मवाले, उत्कृष्ट माता-पिता सरोखे हितेषी मार्गबाले, भाग्य से प्राप्त हुए दर्शनवाले पूज्य आपके द्वारा यह प्राणी (में) अपने चारित्र सरीखी पात्रता से (मुनि या क्षुल्लक दीक्षा द्वारा) निश्चय से अनुग्रह करने योग्य है।' मुनिकुमार-स्वाभाविक तुङ्गिमा ( महत्ता व पक्षान्तर में केंचाई) व आह्लाद के लिए सुमेरु सरीखे व करुणा रस के झरने के लिए कन्दरा ( गुफा ) सरीखे हे राजन् ! सुनिए ___ स्वाभाविक भव्य व जानने योग्य विषय के ज्ञाता आपको निश्चय से सब ज्ञात ही है किन्तु मैं ऐसे कार्य में ( आप के लिए दीक्षा देने में ) गुरु के द्वारा आज्ञा दिये हुए आचार्य पद वाला नहीं हूँ । अर्थात्-हम लोगों को तुम्हें दीक्षा देने में अभी तक गुरु का आदेश नहीं है। अत: आइए। हम दोनों शरणागत जनों के मनोरथों की अनुकूलता वाले उसके पादमूल में गमन करें। उक्त वात को सुनकर मारिदत्त राजा ने मन में निम्नप्रकार विचार किया-'अहो आश्चर्य है, क्योंकि मैं ( मारिदत्त ) प्रजाजनों का गुरु हूँ और मेरी गुरु यह देवता ( चण्डमारी देवी ) है एवं इन तीनों (प्रजा, मेरा व देवी का ) गुरु यह क्षुल्लक है तथा इस क्षुल्लक के दूसरे ( सुबत्ताचार्य ) गुरु हैं। उस दूसरे
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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