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________________ पञ्चम आश्वास १७५ लालनोलिमिः, मन्वनन्दनस्पायोपवेहसषयहृदयः, आझिंकमलदलमृणालनियमसंधारणपरपाणिभिः, अविरलजम्बालमञ्चरीभालपरिचर्यायावरपेशलाशयः, सरसरम्भागरिरम्भसंभावनप्रणयिभिः, अपरिमितोमीरपरिषरपरिमलमकारमपरायणः, घनधनसारपारोस्फारमानीयसेचनचतुरतोभिः एवमन्यासु च तानु लामु प्रयुजोयनकरप्रक्रियासु क्रियासु महादरोबारः परिपारः कृतादापयासनावानन्दमङ्गलैः सामनतिचिरावेच कालावुस्थितावनवविवलं पुनश्चिरजीवनजनो. चिताशीनिविहितसंबोषनेः 'तात, तावत्र भवतामस्मत्कृतिकर्मणो जन्मान्तरातफर्मान समारणेनाविवं मुहलकमीपराअमुख मनोऽभूत् । आवां पुनरद्यापि सदातडूपावफचुम्बितचित्ताविव भवन्तो कयं मामास्यामासंजायः' इति विहिताग्रहावपि तकलकुलवृद्ध समक्षतया संताने विनिवेश्योचितमाचरत् । मायारामसमा रमा मुलमिळे पुःखावलेखोन्मुख स्वप्नालोकनयः सुहपरिचयः कान्ता फुतान्सेहिता । उत्साहोऽपि च देहगेविषयो पः सोऽनित्योबमस्तस्वालोकविलुप्तचित्ततमसा पुंसां भवेऽनुत्सवः ।।१५।। इति चिन्तयतोतेषु कतिपयेषु च दिवसेषु पुन वयोमुनिजनमान्यप्रवृत्तवृत्तेरन्यासनाभिनिवेश इति विहितसर्गाभिषिच्य राज्ये यशोषनाभिधानरत्नं सापस्नमनुसन्मानमङ्गस्य चाटयदेशीयतपाहबूपायोग्यत्वादिमा देवायतिमाघ को जातिस्मरण उत्पन्न हुआ और हमारा दारीर मूळ से बन्धु जनों के अश्रुओं के साथ पृथिवी पर गिर गया। पश्चात् एसे कुटुम्बोजनों द्वारा किये गए आश्वासन से आनन्द मङ्गलों के साथ शीघ्र ही अल्प काल में पृथिवी पर से उठे । जो ( कुटुम्बीजन ) निरन्तर कमलों व वस्त्रों के पंखों की जलकणों से व्याप्त हुई शीतल वायु से उपलालन ( उपचार ) के स्वभाव वाले थे। जिनके हृदय प्रत्रुर चन्दन-द्रव के लंपन से दयालु है । जिनके हस्त विशेष आई (गीले) कमलपत्तं व कमलनाल-श्रेणो के संचारण (प्रेरण या स्थापन) में तत्पर है | जिनके हृदय घनी शंवालमजरी (वल्लरी) श्रेणी को परिचर्या (सेवा) उपस्थित करने से कोमल हैं । जो, सरम ( भोगे हए ) केलावृक्ष के मध्यभाग का.आलिङ्गन कगने के विचार से स्नेह करने वाले हैं। जो बेमर्याद वीरणमूल मा खस-कर्दम के मलने की प्रेरणा में तसार हैं एवं जिनके चित्तप्रसुर कार-फड़श के विशेष जल के सिञ्चन में प्रवीण हैं गीर जो पुनरूज्जी. वित करने के उपाय वाले उन उन उपचारों में विशेष आदर करने से महान हैं। फिर हम दोनों बहुत समय तक हमारे सम्बोधन वाले कुलवृद्धों के आशीर्वादों से व्याप्त हुए। फिर हमारे पिता यशोमति महाराज ने निम्न प्रकार आग्रह करने वाले हम दोनों को, 'हे पिता जी हमारे द्वारा किये हुए पाप कर्म के सुनने से एवं पूर्वजन्म में उत्पन्न हुए दुःखदायक कर्मों के प्रवण करने से आप पूज्यों का यह मन बार-वार लक्ष्मी से विमुख होगया पुन: [जव ] हम दोनों अब भी पूर्वोका दुःखरूपी अग्नि से छुए होने से दग्ध मनवाल सरीरने हो रहे हैं तव कोसे इस राज्य लक्ष्मी में आसक्ति करें ?" समस्त कुलवृद्धों के समक्ष राज्यवंश में स्थापित करके-राज्य लक्ष्मी प्रदान करके उचित (जेनेश्वरी दीक्षा) धारण की । तदनन्तर जन्म हम दोनों निम्न प्रकार चिन्तबन कर रहे थे-- 'लक्ष्मी इन्द्रजाल सरोटी है । सांसारिक सुख दुःख के अक्षर लेख में तत्पर ( दुःखरूप ) हैं। यह मित्र-परिचय स्वप्रदर्शन-सरीखी नीतिवाला है। स्त्री काल की अभिलाषा वाली ( विनश्वर) है। जो शरीर व गृह संबंधी उद्यम है, वह भी अनित्यता के आगमन बाला ( विनश्वर ) है। अतः तत्त्वज्ञान रूपी प्रकाश से चित्त के अज्ञान रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले पुरुषों को सांसारिक विषयों में इच्छा का विस्तार नहीं होता ।। १५० ॥ पश्चात कुछ दिनों के व्यतीत होने पर हम दोनों ने ऐसा निश्चय करके कि 'हम दोनों का मुनिजनों द्वारा मान्म प्रवृत्ति वाले चारित्र को छोड़कर दुसरे राजसिंहासन-गादि की प्राप्ति का अभिप्राय नहीं है। सोतेले 'यशोधन' इस श्रेष्ठ नाम वाले लघु भ्राता को राज्य में अभिषिक्त करके राज्य लक्ष्मी का त्याग किया परन्तु आठ वर्ष की आयु ( उम्र ) होने से हमारा शरीर मुनिदीक्षा धारण के अयोग्य था, इसलिए क्षुल्लक क्षुल्लिका को प्रशस्त अभिलाषा थाली दीक्षा धारण करके उस भगवान सुदनाचार्य के साथ विहार करते हुए हम दोनों
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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