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________________ १७४ यशस्तिलकचम्पूकाब्ये इथं हि महिः प्रदर्शितमतोरमाणमा रमाऽसृग्धारेव विमुख्यमाना भवति जीतिसंहार देहिनाम् । चिरपरिचितालोकः काय इष परित्यज्यमानः करोति दूरे शरीरिणां प्राणान् । समग्यस्तधर्मणि कर्मणि विनियुज्यमानः पुमान्वारीगतः करीवातीवान्तमनायते । सस्त्रियासु तामास्विकावापस्तनुभृत स्वराला इव सुलभः खल्बभिनिवेशो न निर्वाहेषु । दिव्यचक्षुःखलितामिव सहसा कृते कर्मणि शर्पान्ति लोकाः । पुरश्चारकं प्रतिश्रुत्य व्रताव्रण। विवापद्रवत्सु महत्सु भवति च लोकविधा कोलीनता । अपि च । चितं स्वभावमृड कोमल मे तवङ्गमा जन्भभोग सुभगानि तवेन्द्रियाणि । एतत् चित्तवपुरिन्द्रियवृत्तिरोषाद्भुत' तपस्तबलमत्र नृपाग्रहे‍ ।। १४८ || कल्याणमित्रः - क्षितिपते, साध्वाह भगवाम् । राजा -- कल्याणमित्र, सत्यमेवैतत् । किं तु । मायाधिकतर कल्पतं तापतानसह व निसर्गात् । एवमेव वक्त्तमपुंसां संपदां च विपदां च सहिष्णु ।। १४ ।। तलस्तपश्चरणकरणपरिणतान्तःकरणः पुनरहो मारिवत्त समाहूय सपरिवाराबायां पूर्वभववृतान्तमकथयत् । तवाकर्णनाच्च संजातजातिस्मरण बन्यचाप्पाम्बुभिः सह मूयवशाद्भुवि निपतित कर णायन व रतजलजांशु कश्य मनशोकरासारखीतला निलोप तदनन्तर भगवान् सुदत्त भट्टारक- 'बहो धर्मभार का वहन करनेवाले व प्रशस्त ज्ञानादि गुणों के प्रकाशन के भण्डार राजन् | उठिए। दोनों लोकों के व्यवहार संबंधी इसाको सुनिए वास में मनोज्ञ प्राप्ति को दिखाने वाली यह लक्ष्मी निश्चय से जब त्याग की जाती है तब बेसी प्राणियों के जीवन का विनाश करने में निमित्त होती है जैसे मस्तक से प्रवाहित होनेवाली रक्तधारा प्राणियों के जीवन का विन्दाश करनेवाली होती है । चिरकाल से परिचित आलोक ( चितवन या कान्ति) वाला प्रेमीजन (स्त्री - आदि) जय त्याग किया जाता है तब सा प्राणियों के प्राण नष्ट करता है जैसे छोड़ा जा रहा शरीर प्राणियों के प्राण नष्ट करता है । अभ्यास किये हुए धर्मवाले कर्तव्य में किसी के द्वारा प्रेरणा किया जानेवाला पुरुष वैसा चित्त में दुःखित होता है जेसे हाथी के बन्धन- गतं ( गड्ढा ) में पड़ा हुआ हाथी मन में क्लेशित होता है। प्राणियों की प्रशस्त कर्तव्यों के पालन संबंधी तत्कालीन प्राप्तिवाली प्रतिज्ञा निश्चय से स्वच्छन्द बार्तालाप सरीखी सुलभ होती है। परन्तु निर्वाहों (पूर्णता ) में सुलभ नहीं होती ! उतावली में आकर अविचार पूर्वक कार्य करनेवाले को लोग वैसा दोषी ठहराते हैं जैसे अन्धे के गिरने पर लोग उसके खींचनेवाले को धिक्कारते हैं। जब महापुरुष प्रधान नेता को अङ्गीकार करके धारण किये हुए व्रत से युद्ध की तरह भागते हैं तब उनकी दोनों लोकों को नष्ट करनेवाली निन्दा होती है । विशेषता यह है कि आपका मन स्वाभाविक कोमल है व यह शरीर भी मृदु ( कोमल ) है एवं आपको चक्षुरादि इन्द्रिया जन्म पर्यन्त [ किये हुए ] भोगों से मनोज्ञ हैं परन्तु यह तपश्चर्या तो इसलिए दुःखरूप है; क्योंकि यह मन, शरीर और इन्द्रिय संबंधी वृत्तियों के निरोध ( रोकने) से उत्पन्न होती है, अतः हे राजन् ! आपकी तपश्चर्या की हठ करना निरर्थक है ॥ १४८ ॥ फिर कल्याणमित्र नामके वणिकू-स्वामी ने उक्त बात का समर्थन करते हुए कहा- 'हे राजन् ! पूज्य श्री ने उचित कहा' यशोमति महाराज हे कल्याणमित्र ! यह बात सत्य है किन्तु जैसे सुवर्णं स्वभाव से विशेष कोमल होनेपर भी अग्नि ताप व साड़न को सहन करने वाला होता है वैसे ही उत्तम पुरुषों का शरीर भी संपत्तियों ( सुख- सामग्री) व विपत्तियों को सहन करने वाला होता है ।। १४५ ।। तदनन्तर अहो मारिदत्त महाराज | यशोमति महाराज ने अपनी चित्तवृत्ति तपश्चर्या करने में परिणत ( झुकी हुई) को और सकुटुम्ब हम दोनों (यशस्तिलक या अभयत्र च मदनमति या अभयमति) को बुलाकर पूर्वभव का वृत्तान्त कहा। उसके सुनने से हम दोनों
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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