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________________ षष्ठे आश्वास एवमालोच्य लोकस्य निरालम्बस्य धारणे यो हि वायुनं शक्तोत्र लोष्ठकाष्ठादिवारणे । शवसत् । ये प्लावयन्ति पानीयैविष्टपं आता गमपदार्थेयपरं दोषमपश्यतः I अमन मनायामो तत्रैव समाधिः हप्ते पवनो जनैरिश्ता साहसं महत् ॥ १२५ ॥ स्वयं स स्याद्वारणानगरक्षसः ।।११६ ॥ सचराचरम् । वास्ते वातसामर्थ्याटिकन पनि समासते ॥ १२७ ॥ २०६ स्थितिभोजिता । मिय्यादृशो वदन्त्येतन्मुनेर्वाध चतुष्टयम् ॥ १२८६ पानामध्यात्माचारचेतसाम् । मोन स्नानम् प्राप्तं वो स्वस्य विधिर्मतः ।। १२९ ।। लोक का स्वरूप -- आकाश के मध्य में स्थित हुआ यह लोकाकाश निराधार ( शेषनाग व कच्छपमादि आधार-रहित ) है, व आलम्बन रहित है अर्थात् - इसका कोई आश्रय नहीं है । केवल घनोदधिवातबल्य आदि तीन प्रकार की वायु के आश्रय वाला है एवं उत्पत्ति व विनाश से रहित है । भावार्थ- समस्त द्रव्यों को स्थान देनेवाला आकाश द्रव्य सर्वत्र व्याप्त है। उसके बीच में लोकाकाश है, जो कि चीदह राजू ऊंचा उत्तर दक्षिण सात राजू मोटा और पूर्व पश्चिम में सात राजू मध्य में एक राजू पुनः पाँच राजू और अन्त में एक राजू विस्तार वाला है। यह आकाश का ही एक भाग है । परन्तु जितने आकाश में सभी द्रव्य पाये जाते हैं उतने को लोकाकाश कहते हैं, यह अगूर्तिक द्रव्य है, वह स्वयं अपना आधार है, इसे किसी आधार की आवश्यकता नहीं | इसे घनोदधिवातत्रलय आदि घेरे हुए हैं, जो कि पृथिवी वगैरह को धारण करने में सहायक हैं ।। १२३ ।। जैनों की इस मान्यता पर दूसरे आक्षेप करते हुए कहते हैं— पृथिवी, पर्वत व समुद्रों से भरे हुए इस लोक का कोई आधार नहीं है और इसके धारक मत्स्य, कच्छप, शेषनाग और वराह युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होते । ऐसा विचार कर आलम्बन-शून्य जगत ( लोक ) की धारण करने के विषय में जैनों ने वायुविशेष। घनोदधिवातवलय आदि ) की कल्पना की है यह उनका महान साहस है, क्योंकि निस्सन्देह जो वायु पत्थर व लकड़ीआदि के बोझा को सम्हालने में समर्थ नहीं है, वह इस [ महान् ] तोन लोक के धारण कार्य में कैसे समर्थ हो सकती है ?' ।। १२४-१२६ ॥ उनका यह क्षेत्र ठीक नहीं है, क्योंकि अपनी प्रचण्ड जल-वृष्टि से चराचर जगत को में डुबोनेवाले महान् मेघ क्या वायु की शक्ति से आकाश में स्थित नहीं रहते ? भावार्थ--जैसे बाबु अपनी धारणशक्ति से चराचर विश्व को प्रचण्ड दृष्टि से जल को हुआ करने वाले वृहत् मेवों को याँ रहती है वैसे हो तोन लोक को भी वारण कर सकती है। विरोध नहीं है ।। १२७ ॥ जल को बाढ़ बाढ़ में डूबा इसमें कोई जैन साधुओं पर दोषारोपण - जेनों के आप्त, आगम व मोक्षोपयोगी तत्वों में दूसरा कोई दोष न देखने से मिध्यादृष्टि लोग जैन साधुओं में चार दोषों का आरोपण करते हैं - मिध्यादृष्टि लोग कहते हैं कि जैन साधुओं में चार दोप हैं—स्नान न करना, आचमन ( कुरला) न करना, नग्न रहना और खड़े होकर भोजन करना आदि । उक्त बारोपों का समाधान इस प्रकार है - [ सदा] ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार करने वाले और आत्मिक आचार में लीन चित्त वाले दिगम्बर साधुओं के लिए स्नान करने का निषेध है, परन्तु जब कोई दोष लग जाये तब उन्हें स्नान करने का विधान है ।। १२९ || जब मुनि हाथ में खोपड़ी लेकर मांगनेवाले वाममार्गी कापालिकों से, १. भुवनं 1 २. 'आगमपदार्थेषु पर दोपमपश्यतः' इति ०लि० (क० ) । ३. अदर्शनान् अथवा अदर्शनात् । ४. अस्तानं । ५. म आचमनं । ६. अयोग्यं । २७
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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