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________________ प्रशस्तिलकचम्पूकाव्य मन्दस्पन्दीभति हषये नाचिन्ताविदूरव्यापारेऽस्मिन्करणनगरे पोगमग्ने घ मुसि । यत्रापत्ति न भजति कुलिका वचिणापि प्रयुक्तं पुष्पास्त्राणां कुसुमधनुषस्तत्र का माम वृत्तिः ।।४।। इति विचिन्त्य निष्पन्नयोगिलोकोदाहरणतपश्चर्यः सूर्यप्रतिमागतो बभूव । तस्यैवं स्मितस्य महरलोकाकाशवस्वभावादेव सकलरपि जन्तुभिरमुहलङ्घनीयमाहात्म्यस्य हिमवन्सीमकायागाजि कामना पुच्चलित: कन्वलविकासो नाम विद्याधरः कंदवर्पणायाः प्रियतमायाः तमक्ष मदनविनोदं नाम विमानं स्खलितगमनमवेक्ष्य जातवलक्ष्यमात्साघुसमाधिविध्वंसनषिया बहरूपिणी विद्यामनुष्याय विषाय छ हिण्डसंघट्टस्फुटब्रह्माष्टमरिष घोरघोषप्रचणः प्रलयकालप्रसूतिविवसैरिव जनितसमस्तसस्वसाध्वसः, क्षयक्षपान्धकाररिष भीषणाकारः, उरिक्षप्तकृतान्तवृष्टिपात रिवोकामालकरालद्योतः, यमायुषविहरिव मुशलप्रमाणवारिधारावर्षिभिः, स्फुदितामरलोकशैलधिणारंरिषापतस्यीय पाषाणैः, के बीणा-वादन के कारण मनोज्ञ है और जहाँपर किन्नरों के जोड़ो ( देव-देवियों ) के संगीत से हर्ष पाया जाता है, 'मन्मथमथन' नामकी योग्यतावाले, आकाशगामी, चरपदेहधारी मुनि, इन्द्रादि द्वारा आराधना के योग्य व सरस्वती ( द्वादशाङ्ग-वाणो) रूपो नदी के जल { शब्दलक्षण वाला जल ) की अनुभवन कोड़ा के गजेन्द्र हैं व जिसको तपश्चर्या, धगध्यान व शुक्लन्यान का पूर्ण अभ्यास किये हुए ध्यानियों के समूहों को उदाहरण ( दृष्टान्त-वचनरूप) है, निर्भय स्थान पर स्थित होकर निम्नप्रकार चिन्तवन करके कायात्सर्ग में स्थित हुए। [प्रस्तुत ऋषि का ध्यान-] "जब मन किञ्चित् भी चलायमान नहीं होता । स्थिरीभूत-निश्चल हो जाता है । और जब इन्द्रिय लक्षणवाला नगर वाह्यस्पा से शून्य हो जाता है। अर्थात् जब इन्द्रियरूपी नगर शब्द, वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श इन पांचों इन्द्रिय-विषयों की अभिलापा से दूरवर्ती व्यापार वाला हो जाता है एवं जब आत्मा धमध्यान व शुक्लध्यान में मग्न हो जाती है, अर्थात्-एकलोलोभाव प्राप्त कर लेती है तब जिस कायोत्सर्ग में इन्द्रद्वारा प्रेरित किया हुआ वज गी प्रवृत्ति प्राप्त नहीं करता, उस कायोत्सर्ग में कामदेव के पुष्परूपी अस्त्रों की क्या प्रवृत्ति हो सकती है ? अपि तु महों हो सकतो' ।। ४९ ॥' इस प्रकार कायोत्सर्ग में स्थित हुए और जिसकी महिमा अलोकाकाश-सरीखी स्वभाव से ही समस्त प्राणियों द्वारा उल्लङ्घन करने योग्य नहीं है ऐसे मन्मथमन्थन नाम के महर्षि के कपर कन्दल-विलास नाम के विद्याधर ने, जो हिमवन् पर्वत के ऊपर स्थित हुए बनों को देखने निमित्त विमान से आकाश में ऊपर प्रस्थान कर रहा था। जिसने 'कन्दर्पदपणा' नाम की अपनी प्रिया के समक्ष अपने मदनविनोद' नाम के विमान को रुका हुआ देखकर जिसे ऋषि के प्रति क्रोध उत्पन्न हुआ है, जिससे उसने प्रस्तुत 'मन्मथमथन' नामक मुनि के ध्यान में विघ्न करने की बुद्धि से वहुरूपिणी विद्या का चिन्तवन' करके निम्न प्रकार उपसर्ग किये । प्रसङ्गानुवाद- बाद में प्रस्तुत (मन्मथमथन) ऋषि की सेवार्थ आये हुए 'रत्नशिखण्ड' नामके विद्याघर-चक्रावर्ती ने उन कर्म करनेवाले इस विद्याधर को देखा और ऐसा करने से उसके प्रति विशेष क्रोष प्रकट किया। [प्रस्तुत पि के पर उपसर्ग करने के लिए ] उसने पूर्व में ऐसे मेघों से आकाश को आच्छादित किया। जो (मेघ ) भयानक गरजने की ध्वनियों से विशेष शक्तिशाली हुए ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-जिनमें विजलीदण्डों के संघट्ट से त्रैलोक्य-खण्डों के सैकड़ों टुकड़े हो रहे हैं। समस्त प्राणियों को भयभीत करनेवालं जो ऐसे प्रतीत होते थेमानों-प्रलयकाल संबंधी उत्पत्ति-दिन ही हैं। जो भयानक मूर्तिवाले होने के कारण ऐसे मालूम पड़ते थे १. भाक्षेपालंकारोऽसिशयालंकारश्च । मन्दाकान्ता अम्बः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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