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________________ पञ्चम आश्वासः १२९ कि । पाबान्तलक्ष्मीरपरः पयोषिः पूर्वोऽम्युधियस्य शिरस्यवनीः । शय्यापकाशा छ वसुंधरेयं नातामरस्त्रीजनसेवितस्य ॥४६॥ चल्लोलकल्लोलकरप्रचारात्पूर्वापर स्वप्नुमिव स्थितस्य । सीमन्तसंबाहनयोरिवाग्धो जातोद्यमी यस्य गिरेश्यकास्सः ॥४७॥ यत्राषिः पुष्कररिस्थतागे तरङ्गहस्ताहलकंदरास्यः । शत्राप्रवेतःपुरकामिनीनां नृत्ताय वृत्तः कुतपीष भाति ॥४८॥ सन्न विद्याधरसुन्दरोविलासमणिर्पणपछि चारणश्रमणचरणातिमेखले सततस्यन्दपुदिनवरीसरसमोरसीफराप्तारिणि सुरतभनिन्नखबरसहधरीसेव्यमानसंतानकम्मकाये मुरानोफहकुहरविहरमाणमधुकरीकुलकलहगलप्रमूनमकरन्दामोहिन्य. अंलिहशिखरोस्सङ्गसंगतगगनगणिकोपषीणनमनोहरे मयुमिथुनसंगीतकानन्दिनि निरकवेशमध्यास्य फिल घरमदेहलारी मगवानसरस्वतीसरिजलकेलिकुञ्जरो मन्मथमथनाभियानावसरस्चारणमहर्षिः है, वहाँपर नगाड़ी की ध्वनि होती है। जिसका कटिनीतट स्वर्ग-कामिनियों ( देवियों ) के गीतों से मनोहर है। जहाँपर नट नृत्य करता है, वहाँ पर स्त्रियाँ गाने गाती हैं । जिसको लतारूपी भुजाएं कल्पवृक्ष से प्रशंसनीय हैं। जैसे नट भी भुजाओं से नृत्य करता है। जो गङ्गा की ऊँची उत्कृष्ट तरङ्गों से आकाश में उछलते हुए स्थूल जलबिन्दुओं के समूहरूपी हार ( मोतियों की माला ) से मनोज्ञ है। जैसे नट भी हार से अलकृत होता है। एवं जिसको आगतं-( घुमाव ) नीति प्रात्ताल ( उत्सुक ) है। जेसे नट भी उत्ताल नृत्य-कारक होता है॥ ४५ ॥ विशेषता यह है—पश्चिम समुद्र ही जिसकी चरणक्ति की शोभा है। एवं पूर्वसमुद्र ही जिसके मस्तक का उच्छीर्ष ( तकिया ) है तथा यह पृथिवी ही जिसकी शय्या ( पलङ्ग) है। यहाँ पर शङ्का होती है कि जब पलङ्ग के ऊपर कामिनीजन देखा जाता है तो इसका स्त्रीजन कौन है ? उसका समाधान करते हैं; जो कि देवी की स्त्रीजनों । दवियों ) से भोगा गया है। 1॥ ४६॥ जिस विजया पर्वत के पूर्व व पश्चिम समुद्र चञ्चल व विशाल तरङ्गरूपी हस्तों के संचालन से ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-निद्रा लेने के व्यापार-युक्त हुए-सरीखे उस विजया के मस्तक-संमार्जन (प्रक्षालन ) व पादमदन करने में जिनको क्रमश: उद्यम उत्पन्न हुआ है, ऐसे सुशोभित हो रहे हैं 11 ४७ ॥ मृदङ्गमुख-सरीखे व्यापार-युक्त शरीरवाले जिस विजवाध पर्वत पर ऐसा समुद्र, जिसने तरङ्गोंरूपी हस्तों द्वारा गुप्श-मुख ताडित किये हैं, मृदङ्ग-बजानेवाले सरोखा' शोभायमान हो रहा है। यहाँ पर शङ्का होती है कि मृदङ्ग-आदि वादित्रों का वादन ( बजाना ।, नृत्य के लिए होता है, अतः यहाँ पर नृत्य क्या है ? इसलिए नृत्य-कारण से गर्भित हुए समुद्र-विशेषण का निरूपण करते हैंफैसा है समुद्र ? जो इन्द्र ( पूर्वदिग्पाल ) व वरुण ( पश्चिम दिग्पाल ) के दोनों नगरों की कामिनियों ( देवियों) के नृत्य के लिए प्रवृत्त हुआ है ॥ ४८ !! ऐसे उस विजयाचं पर्बत पर, जिसमें विद्याधरों की कमनीय कामिनियों के नेत्र-विभ्रम के दर्शननिमित्त माणमय दर्पणसरीखे पाषाण-शिलातल वर्तमान हैं। जिसको मेखला ( पत्रंत का मध्यभाग) आकाशगामी मुनियों के चरणों से चिह्नित है । जहाँपर निरन्तर जल-स्रवण के कारण मेधों से आच्छादित हुई गुफाओं में संचार करनेवाली वायु से जल-कण-समूह वर्तमान हैं। जहाँ पर मेथुन-खेद से खिन्न हुई विद्याधरों को कामिनियों से कल्पवृक्षों की छाया का आश्रय किया जा रहा है । जहाँपर ऐसे पुष्पों के मकरन्द ( पुष्परस) को मुगन्धि विद्यमान है, जो कि फल्पवृक्षों के कुहरों (छिद्रों) में विहार करतो हुई मवेरियों के समूह के कलह के कारण नीचे गिर रहे हैं । जो विशेष ऊँचे शिखरों के उपरितन भागों पर एकत्रित हुई विद्याधरों की वेश्याओं १. युग्म श्लेषोपमा। २. रूपकहेत्वलकार ! ३. यथासंस्पोत्प्रेक्षालंकारः । ४. रूपकोपमालंकारः । १७
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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