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________________ पञ्चम आश्वासः १३१ असितशिलाषिष्ठामबन्धरिख ज्योतिर्वसतीनाम्, असमयतमिलासमागमरित्र भुवनवलपल्म, अकाण्डकपाटघटनैरिव बाकम्पामाम, समवसरसंहारवासररिव नेत्रवृत्तीनाम्, अफालकालायसोपहाररिव क्षितः, घनाघनरावसं गगनमाभरणभुनम माभोलतालराकम्पिताखिलभूगोलजलालच बुर्दशा किसः प्रप्ताध्य स्वयं च समाचरितमालङ्गवेषश्वकर्माचरन्नेनं पोगिनमुपासितुमागतेन रत्नशिखण्डिनाम्ना विद्याधरचक्रवर्तिना ध्यलोकि खुकुरी छ । ___ पुनः 'अरे वाचाराधार पराकारात्मन् सलपुरोभागिन् विद्याधरापम खेचरखेट बिहायोगमवाप्य वियचर खेल हेठ मरकनिषास पापाचार बहपुमतिभूतचिस गुणमटह निहोन गन्धर्वलोकापसद मारिपुरुष सकलसत्त्वानम्धनीयतपत्ति त्रिभुवममान्ययशसि भगवति परं ब्रह्मासनमुपगतवति फिमेवमाचरितुमुचितम् । म चेह महामुनिसंनिधाने शास्त्राणामिवा वाणो व्यापारस्पायसरः । तदन्यपापि ते व्यपमयामि समुन्न भावम्' इति वदुर्जनाविनयप्तमवती स नभश्चरचर वर्ती तस्य समस्ता अपि विधायरलोकलमीलाञ्छनाश्चिच्छेद विद्याः । शशाप च भविष्यस्यनेन दुश्चेष्टितेनास्तिषु राजधान्या मातङ्गसमवृत्तिाचण्डकर्ममामको वण्डपाशिकः' । स खेचरः स्वकृतानवशरसम्छापेन गोचरता प्रतिपय मानों-प्रलयकाल की रात्रि के अन्धकार ही हैं । उल्काजालों ( तारों के टूटने की श्रेणियां ) के मयानक प्रकाश वाले जो ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-ऊपर फेंके हुए यमराज के दृष्टिपात हो हैं। मूसलप्रमाण ( विशेष स्थूल) जलधारा की बुष्टि करने के स्वभाव वाले जो ऐसे प्रतीत हो रहे ५-मानों-जिनमें यमराज के दण्ड से छेद किया गया है । जिनसे विस्तीर्ण पाषाण गिर रहे हैं, अतः जो ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-विदीर्ण हुए स्वर्गपर्वतों के शिखर ही हैं। इसी प्रकार जो ऐसे प्रतीत हो रहे थे-मानों-चन्द्र, सूर्य, ग्रह व ताराग्रहों की कृष्णवर्ण वाली शिलाओं के अधिष्ठान-बध ( आवास स्थानसमूह ) ही हैं । अधवा मानों-पृथिवीमण्डल के अकाल काल रात्रिसंबंधी समागम ही हैं। अथवा मानों-जिन्होंने दक्षकन्याओं (तारकों) को असमय में किवाड़ों की रचना की है। अथवा मानों नेत्र व्यापारों के असमय संबंधी प्रलयकाल के दिन ही हैं और जो मानोंपृथिवी के असमय में होने वाले लोह के चूर्ण प्रकार हो हैं। इसी प्रकार उसने स्वयं चाण्डाल-वेष धारण करते हुए आभरण संबंधी सपो से भयानक वेतालों ( भूत विशेषों) से और समस्त पृथिवी-मण्डल को कम्पित करने वाली प्रचण्ड वायुओं से दिशाओं को दुष्ट अवस्था बाली की । अथानन्तर प्रसङ्गानुवाद-दुष्टों की उद्दण्डता को नष्ट करने के लिए यमराज-सरीखे उक्त रत्नशिखण्डी' नाम के विद्याधर-चक्रवर्ती ने प्रस्तत 'कन्दलविलास' नाम के विद्याधर के प्रति निम्न प्रकार कोप-यक्त बचन कहते हुए उसकी समस्त विद्याएं भी, जो कि विद्याधर-समूह की लक्ष्मी के चिह्न हैं, छेद दौं ( नष्ट कर दी)। उक्त विद्याधर चक्रवर्ती वो कोप-पूर्ण वचन-'अरे ! निन्द्य आचार वालं ! अरे बध स दुष्ट आत्मा वाले ! अरे दुष्टों में अग्रेसर व विद्याघरों में निकृष्ट! अरे विद्याधरों में कुत्सित अथवा विद्याधरों को विशेष भय उत्पन्न करने वाले व विद्याघरों द्वारा निंदनीय एवं विद्याधरों के मध्य में निंदनीय ! अरे वाघा उत्पन्न करने वाले व नरक में निवास करने वाले अथवा नरक ( गूथ–मल ) के निवास एवं पाप को ही आचार मानने वाले ! तथा प्रचुर मायाचार से परिपूर्ण चित्तवाले ! अरे गुणों से लघु, नोच और विद्याधर लोक में जाति से वहिष्कृत ! अरे मातृमैथुन ! तुझे ऐसे भगवान् ( गुणों से इन्द्रादि द्वारा पूज्य ) ऋषि के ऊपर, जिसकी तपश्चर्या समस्त प्राणियों को आनन्द देनेवाली है तथा जिसका पवित्र गुण कीर्तन त्रैलोक्य पूज्य है, एवं जो उत्कृष्ट धर्मध्यान में लीन है, क्या इस प्रकार का उपसर्ग करना उचित है ? इस महामुनि के समीप जैसे शास्त्रों की प्रवृत्ति का अवसर है वैसे शस्त्रों की प्रवृत्ति का अवसर नहीं है। अतः मैं शस्त्रों के बिना भी तेरा मद चूर-चूर करता हूँ। अथानन्तर प्रस्तुत "रत्नशिखण्ड' नाम के विद्याधर चक्रवर्ती ने उक्त कन्दल विलास नामक विद्याधरों की केवल विद्याएँ ही नहीं छेदी अपितु उसने उसे निम्नप्रकार शाप भी दिया-'इस कुकृत्य से तू अवन्ति देश
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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