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________________ १३२ पशतिलकधम्पूकाव्ये मानस्तं भगवद्विप्नकासन चक्रवतिनमुपसृत्यावनतमुखाब्जः सन्धमाधीत्-'नाय, भवतु नामवम् । कथमन्यतालकोयं दृष्कर्म विफलोवयं स्यात् । स एष निसर्गजन्मभाव: सरसामिव स्वामिनाम्, यः खन युक्तायुक्तकारिषु सेवकेषु स्वच्छकलुषभावो नाम । तरक्षम्यतामिवमेकं स्खलितमपुण्यभाजोऽस्य जनस्य । अनुगृह्यता च शापावसानमनीषया पुनविद्यापरलोकावास्तिकरेग वरेण' इत्यभिषग्य तत्पादयोरुपरि निपपान । स महामुनिगुणपणनोशौर्णमोतिनों विद्यापरचक्रवर्सी । दण्ड एव हि नोचानां विनयाय न सस्क्रिया । ऋजुत्व जिह्मकाप्ठस्य नारस्ति परो विधिः ।।५०|| म तापपु 4 Risgadg मन लोकोऽयं गुणकार्यपरायणः ॥५१॥ इति परामृश्य, उपयुज्य प तस्य भगवतः पर्युपासन विशेषाल्लम्पमधिमुपजातानुक्रोषाः 'स्वर, मा साम्य । इत्तिष्ठ । की राजधानी सज्जयिनी नगरी में चाण्डाल-सरीखी जीविका वाला' व 'चण्डकर्मा' ऐसे कुत्सित नामवाला कोट्टपाल होगा।' अथानन्तर उस 'कन्दलबिलास' नाम के विद्याधर ने स्वयं किये हए अन से उक्त, रत्नपाखण्ड के शाप से भूमि-गोचरीपन स्वीकार किया और गुरु के उपसर्ग को छेदन करने वाले उस 'रत्नगिखण्ड' नामक विद्याधर चक्रवर्ती के समीप जाकर उसके चरणों में पड़कर नम्रीभूत मुख कमल वाला होकर उसने इस प्रकार कहा-'हे स्वामिन् ! ऐसा हो, अर्थात्-में कोट्टपाल होऊँगा । अन्यथा-पदि |मैं भूमिगोचरी नहीं होऊँगा तो मेरा यह पापकर्म विफलोदय (विषम फल के उदय वाला) कैसे होगा? हे स्वामिन् ! सरोवरसरीखे स्वामियों का वह जगप्रसिद्ध एवं प्रत्यक्षोभूत स्वाभाविक परिणाम होता है, निश्चय से जो (स्वाभाविक परिणाम), युक-अयुक्त करने वाले सेवकों के विषय में क्रमश. स्वच्छता व कलुषता उत्पन्न करता है । अर्थात्-जैसे नालाबों में स्नान करने वाले जब योग्य जल का उपयोग करते हैं तब तालाबों में स्वच्छता । निर्मलता होती है और जब अमुक्त (बहतर) स्नानादि करते हैं तब तालाबों में कलषता मलिनता) हो जाती है वैसे ही स्वामियों के सेवक जन युक्त ( उचित ) कर्तव्य में प्रवृत्त होते हैं तब स्वामियों में स्वच्छता { प्रसन्नता) उत्पन्न होती है और जब सेवक अधिकता से प्रवृत्ति करते हैं । अनुचित कार्यों में प्रवृत्ति करते हैं। तब स्वामियों में उनके प्रति कलुषता {सकोपता ) उत्पन्न होती है। उस कारण से इस मुझ पापी सेवक का एक अपराध क्षमा किया जाय और केवल मेरा अपराध क्षमा ही न किया जाय अपितु आप शाप को अन्त करनेवाली बुद्धि से फिर हो बिद्याघर-लोक की प्राप्ति करनेवाले वरदान से इस सेवक का अनुग्रह कीजिए। इस प्रकार कह कर उसके चरणों में गिर गया। तत्पश्चात् उस विद्याधर-चक्रवर्ती । रत्नाणखण्ड) ने, जो कि दिगम्बर महामुनियों के गुण-वर्णन से उत्पन्न हुई कोति से नत्य करनेवाला है और जिसे प्रस्तुत विद्याधर के ऊपर दयालुता उत्पन्न हुई है, चित्त में निम्नप्रकार विचार किया-'जैसे देही लकड़ी को सरल करने में उसमें अग्नि लगाने को छोड़कर दूसरा कर्तव्य नहीं है वैसे ही निश्चय से नीच पुस्पों को शिक्षा देने के लिए (नम्र बनाने के लिए ) दण्डनीति ही उपाय है। न कि उनका सत्कार उनको नम्र बनाने में कारण है' ॥५० ।। राजा का अपराधियों पर जो क्रोध होता है और उसका अनुकूल प्रवृत्ति करवाले शिष्ट पुरुषों में प्रसाद (दानादि द्वारा सन्मान ) होता है, उस कोष व प्रसाद से यह लोक गुण व कर्तव्य पालन में तत्पर होता है॥५१॥ तत्पश्चात् उसने उस पूज्य मन्मथमधन नामक ऋषि की भक्ति विशेप से प्राप्त हए अवधिशान से जानकर कहा-हे विद्याधर ! खेद मत कर। उठो । देवताओं सरीखे राजाओं को आजा सेवकों के प्रति १. दृष्टान्तालंकारः।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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