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________________ सप्तम आश्वास: २४९ प्रकाशितशिखा श्रीफलजालो' गलनालावलम्वितशराजमालः प्रयोपति वनगहन रहसि प्रविष्टः तुच्छीको २पिनोतटिनीनिकटोपविष्टस्तेन कालासुरेण दृष्टः प्रत्यवमृष्टश्चेष्टेन चाहं 'तावका रिकद्धि प्रतिकाशधिषुशक्तिः एषोऽपि सामतप्रतिष्ठापयिषुमतिप्रवाक्तिरतो निष्प्रतिषः खल मे कार्योंल्लाथः इति निभतं वितमयं पर्याप्तपरित्राजरुषेण मायामयम नोषेण भाषितश्च । तथाहि पर्यंत, केन खलु समासन्नकीना 'शकेलिनर्माणा तुष्कर्मणा विनिर्मार्पितनि शपकार' पर्वतः -- 'तात, को भवान्' 'पर्वत, भवत्पितुः खलु प्रियसुबहं सहाध्यायी शाण्डित्य इति नामाभिधायो । यदा हि यरस, सवान् ११ चोइन् समभवत्तदाहं तीर्थयात्रायामगाम । इवानों चागाम् । अतो न भवान्मां सम्यगवचारयति । तत्यन्त" कारणमध्य व्यतिकरस्य' । י पर्वतः - 'माप्राणितपरित्राणकारिन् भगवन्, समाकर्णय | समस्तागम रत्न संनिपातरि कृतमणिसश्राहरि जिनकानुजारि पितरि नाफलोकमिते सति स्वातन्यादेकवा प्रदीप्तनिकामकामोद्गम संपन्नपण्याङ्गनाजनसमागम: १७ कृत पिशितकापिशा १८ मिन्नस्वादः पापकर्मप्रासादः चेतन्नध्याय "पदिष्टं विशिष्टं व्याख्यानमहं " दुरात्मास्यामः चाण्डाल की चिताभूमि के वस्त्र ( मुर्दे का कफ्फन ) से जिसने लँगोटी की थी । मार्ग में उल्टे उस्तरे से उसका सिर भुँडा गया था। जिसकी चोटी में बिल्व फल-समूह प्रकट रूप से बाँधे गए थे। जिसकी कण्ठनाल में कोरों की श्रेणी आश्रित थी। वह विशाल बन के गहन एकान्त प्रदेश में प्रविष्ट हुआ और थोड़े जलवाली द्वीपिनी नाम की नदी के तट के निकट बैठ गया । उसे कालान्तर ने देखा, उसकी मन की दशा जानते हुए कालासुर ने निश्चल विचार किया- 'में अपनी बिक्रिया ऋद्धि को प्रकट करने की शक्तिवाला हूँ और इस पर्वत को बुद्धि की प्रकृष्ट शक्ति अपने मत को स्थापन करने की इच्छुक है, अतः निश्चय से मेरी कार्य घटना निर्विघ्न है । ऐसा विचार कर उसने सन्यासी का वैष प्राप्त ( धारण ) किया और अपनी बुद्धि को छल-कपट- पूर्ण करते हुए कहा - 'पर्वत ! निश्चय से यमराज की क्रीड़ा के निकटवर्ती परिहास ( मजाक ) करनेवाले किस दुष्ट के द्वारा तुम्हारे साथ यह निष्ठुर अपकार कराया गया ? अर्थात् - तुम्हारे अपकार करनेवाले की मृत्यु निश्चित है । पर्वत- 'पिता ! आप कौन हैं ?" कालासुर - 'पर्वत | निस्सन्देह में आपके पिता का सहपाठी प्रिय मित्र हूँ। मेरा नाम शाण्डिल्य है । जब तुम छह दांतों वाले शिशु थे तब में तीर्थयात्रा के लिए चला गया था और अब वापिस आया हूँ, इसी लिये आप मुझे अच्छी तरह नहीं जानते । अतः अहो पुत्र ! तुम अपनी इस दशा का कारण कहो ।' पर्वत - 'मेरे प्राणों की जीवन-रक्षा करनेवाले भगवन् ! सुनिए- समस्त शास्त्र रूपी रत्नों को भलीभाँति धारण करनेवाले और पुण्य रूप मणि को एकत्रित करने वाले मेरे पिता जिन दीक्षा धारण करके जब स्वर्गारोहण कर चुके तव में स्वच्छन्द होने से एक समय मेरे में कामोत्पत्ति अतिशय रूप से प्रज्वलित हुई, १. श्रीफलं विस्वं । २. नाम्मी । ३. परामृष्टहृदयचेष्टेन । ४ बिक्रियो कद्धि प्रकटयितुं शक्तिः ५. निर्विघ्न । ६. घटना । ७. निश्चलं विचार्य । ८. तपस्वी । ९. यम । १०. 'निष्ठुर' टि० ख० पञ्जिकाकारस्तु निर्व निर्वर:' इत्याह । १९. यदा तब पद्मन्ताः षोन् साधनिका पचन्तयत् टि० ख० ' षोढन् पद्मशन: ' | १२. आगतः । १७. मांस 1 ९८. मद्य 'पड्दन्तः' टि० च० ० तु १२. बहो ! । १४. जीवितरक्षणं । १५. सन्धारके । १६. कृत । । १९. जानपि । २० पितृ । २१. दुरात्म- दुष्टस्वभावं आल्यानं चरितं यस्य मम सोऽहं 1
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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