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________________ . ३५० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये स्वयमद्धिचा साधुमध्ये नापातिवचनस्लन: सन् एतावद्विपतिस्थामवस्थामापम्' । अष्टव्यमितोदं वाक्यमशेष कल्मषनिषेषपो 'उज्यथोपन्यस्य मानो नारवे कालासुर:- 'पर्वत, मा शोच । मुञ्च त्वमशेगं विवणाकलुवम् । अङ्ग, साधु संतोषयात्मानम् । न निरीहस्य नरस्यास्ति काचिन्मनीषितावाप्तिः । तवलं हुत्त हृदयदाहानुगेनायेगेन * । हो पुत्र पर्वत, यया स्वकीयसंकेतर बाह्यगोसवाइयमेषसीणामणिवाजपेय राजसूयपुण्डरोकप्रभूतीनां सप्ततन्तुना " प्रतिपादकानि वाक्यानि विरचय्य अन्तरान्तरा वचनेषु निवेशय । वत्स, मयि सूर्भुवः स्वस्त्रयीषिपर्यासनसमर्थं मन्त्रमाहात्म्ये त्वयि सरसासवसवित्रीप्रवृत्तिहेतुभुतिगीति समभ्यस्तसात्म्ये किं तु नामेहासाध्यम्' इत्युत्साह्य स्वयं विद्यावष्टम्भसृष्टाभिरष्टाभिर पीतिभिरुपद्वयमाणजनपबहुत्रयमयोध्या वियमागत्य नगरबाहिरका स देवाननोऽभूत् । १३ अध्वर्युः पर्यंतः क्षमासीत् । मायामपसृष्टयः पिङ्गल-मनु- मतङ्ग मरीचि - गौतमानपत्र "ऋत्विजो नियत । तत्र "श्रुतितिश्वभिवंदने पविशति । जिससे मैंने वेश्याजनों के साथ रति विलास किया और मांस भक्षण किया और मदिरा पी, इस प्रकार में पातकों का गृह बन गया | 'अष्टव्य' इस वाक्य का पिताजी ने जो विशिष्ट अर्थ किया था, उसे जानते हुए भी दुष्ट स्वभाववाले चरितयुक्त मैंने पापबुद्धि से अपने व्यसनों की वृद्धि के लिए उसे बदलकर समस्त पापों से आश्रयणीय मैंने बस रूपों के दाग को उपस्थापक से निरूपण कर रहा था तब नारद ने मेरे अन्यथा निरूपण को सज्जनों के समक्ष प्रदर्शित कर दिया । अर्थात् — मेरी गल्ती पकड़ लो। इससे में इस प्रकार की विपत्ति के बाश्रय वाली इस दयनीय दशा को प्राप्त हुआ है ।' फालासुर - पर्वत ! शोक मत कर और समस्त बुद्धि को मलिनता को छोड़ । हे पुत्र ! अपनी आत्मा को सम्बोध । जो मानव शत्रु-लोक के ऊपर निःस्पृह होता है या निरुद्यमी होता है उसे कोई अभिलषित वस्तु प्राप्त नहीं होती । अतः हृदय के वाह को अनुसरण करनेवाले शोक को छोड़ । अहो पुत्र पर्वत ! ब्राह्यमेव, गोमेध, अवमेध, सौत्रामणि, वाजपेय, राजसूय व पुण्डरीक आदि यज्ञों के निरूपण करनेवाले वाक्यों को अपने संकेत के अनुसार ( अपने अभिप्राय के सूचक ) रचना करके उन्हें वैदिक वाक्यों के बोल बीच में प्रविष्ट कर दो पुत्र ! जब मेरे में पृथिवीलोक, अधोलोक व ऊर्ध्वलोक इन तीनों लोकों को विपरीत करने में समर्थ हुए मन्त्रों की सामर्थ्य होते हुए और मांस-मदिरा और माता में प्रवृत्ति करने में कारण वैदिक मन्त्रों के पाठ में अभ्यस्त हितवाले तुम्हारे होते हुए में पूछता हूँ कि तब लोक में ऐसी कौन वस्तु है, जिसे हम प्राप्त नहीं कर सकते ? इस प्रकार पर्वत को उत्साहित करके वह कालासुर ऐसे अयोध्या नाम के देश में आया, जिस देश कोपरि निःम्हस्य' टि० ब० १. काश्रयणीयः । २. उपसर्गादात्मनेपदं 'उपसर्गादिस्हो' इत्य नैन । ३. 'नियमस्य' दि० ० ४ हन्त हर्येऽनुकम्पामा वावयारंभविपादयः । ५. किन । ६ यशानां । ७ मध्ये मध्ये 1 ८. पाठ । ९. हि । १०. नु पृच्छायां विकल् च दितकें च । *. नाम-प्राकाश्यसम्भाव्यत्रोधापगम कुत्सने । ११-१२ अतिवृष्टिराष्टिर्मुकाः शलभाः शुकाः । स्ववक्रं परचक्रं च सप्ताः इतयः स्मृताः ॥ १ ॥ अष्टमी नाम साहिम-आतपदिका । १३. 'भजुर्वेदज्ञाता' यध्वमुः अध्वर्युः होतहोतारो यजुः समा दि० ख० 'या' दि० प० च । १४. संजाताः भाया तु कालासुरस्यैव । १५. ब्रह्मा ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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