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________________ ३४८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये श्रीमप्रकाम 'मिन्द्रियाराममुपरम्य' अन्तरात्महेमाइम समस्तमलवहन ध्यामवहनमुद्दोप्य संजातकेवलस्तत्पदाप्तिपेशस्तो बभूष। पर्वतस्तु तथा सर्वसभासमाजरेगोरितोद्दीर्थपुरसवावरजसि मिप्यासाक्षिपविचक्षणवचसि बुराधारेण क्षुभितसहस्राक्षानुवरी जितजीवितमहसि कथाशेषतेजसि वसौ सप्ति अहवल्लीणतया पौराधिकौर्षया च निरन्तरोदनरोमायनिकायः "पाललशालाकानिकोर्णफाय इस निमागणें पदुरीहितामातीवरचर्मपुटः स्फुटन्निव व जन पलिविनाशवशामषिभिः संभूयोपदिष्टप्लोष्टषषिभिरतु छपिञ्छो लबलास्फालमप्रकर्षिभिः प्रतिघातोछलच्छकल' कशा प्रहाराषभिनंपरनिवाप्तहर्षिभियन रगणिसापकारं सरासभारोहणावतारं कण्ठप्रदेश प्राप्तप्राणः "पुरुपूतकृसोल्वणवाण: सकलपुरवौथियु "विश्वाधुष्टानुमातो* निष्काशितः "यममस्मशानांशुकपिहितमेहनी विपरीतारधाराचरितमार्गमुण्डन: १५ दानरूपी अमृत की वृष्टि का आश्रय है। बाद में उसने मुनि लक्ष्मी के समागम के लिए दूती-सरीम्बी कुण्डिका (कमण्डल ) धारण करके और मुक्तिनी के वशीकरण का परिच्छेद-जेसा शास्त्र स्वाध्याय करके एवं मनरूपी बन्दर की बहुल कीड़ावाले इन्द्रियरूपी बगीचे से दूर होकर ऐसी धर्मध्यानरूपी अग्नि उद्दीपित करके, जो कि अन्तरात्मारूपो सुवर्ण-पाषाण की समस्त पापरूपी किटकालिमा को दग्ध करनेवाली है । अर्थात्उसने धर्मध्यान व शुक्लध्यानरूपी अग्नि द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अन्तराय इन चार घातिया कर्मरूपी ईधन को भस्म करके केवलज्ञान प्राप्त किया, जिससे वह मोक्षपद प्राप्त करने से मनोज्ञ हो गया। जब ऐसा वसु, जिसका तेज केवल कथामात्र में हो शेष था, अर्थात् -जो मर चुका था। जिसके प्रति समस्त सभासदों व सामाजिक जनों द्वारा महान धिक्काररूपी धूलि उच्चारण की गई थी, ( पक्षान्तर में फैकी गई थी) जिसके वचन झूठी गवाही देने के पक्ष के समर्थन में प्रवीण थे। जिसका जीवनरूपो तेज दुराचार ( मिथ्यापक्ष का समर्थन ) के कारण कुपित हुई इन्द्र की किङ्करियों द्वारा विशेष रूप से नष्ट किया गया था । तब कालासुर ( जो कि पूर्वजन्म में मधुपिङ्गल था) ने ऐसे पर्वत को देखा, दीर्घलज्जा से व नागरिकों को द्रोह करनेवाली इच्छा के कारण जिसे अविच्छिन्न व उच्चतर रोमाञ्च श्रेणी उत्पन्न हुई थी। जिसकी कुक्षि का चर्मपुट अपने असंख्य पापों से फट गया था—मानों-उसका शरीर सेही के काटों से बोंधा गया-जैसा मालूम पड़ता था। जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-फट हो रहा है। जो ऐसे नगर में निवास करने से हर्षित हुए नागरिक जनों द्वारा अगणित अपकार पूर्वक गधे पर चढ़ाकर समस्त नगर की गलियों में दुरपवाद की । को प्राप्त हआ नगर से बाहर निकाल दिया गया था। जो कि नागरिक जन ) वम राजा के मर जाने के वश से इससे कपित थे। जो एकत्रित होकर इसके ऊपर पत्थरों की वर्षा करने का उप देश देते थे। जो कि बहुल बाँस के स्वण्डों द्वारा इसे विशेष रूप से ताड़ित करते थे और जो ताड़न करने से ऊपर उछलते हुए खण्डों वाले कोहों से प्रहार करने की अधिक तृष्णा करते थे। कष्ट से उसके प्राण कण्ठ देश में आ गये थे। जो विशेष चिल्लाने का उत्कट शब्द करता था। १. यथेष्टं-बधिर्क। २. परितो भूत्वा। ३. सुवर्णपापाण। ४. मोम । ५. किरीभिः क्षितं विष्वस्तं जीवितमेव महस्तेजो यस्य । ६. दीर्घलज्जया। ७. द्रोहकरपाञ्छ्या टि० ख०, आपकर्तुमिच्छया टि० च०। ८. सहीवालविशरीरः । ५. बहल, असंख्य | १०. आटितकुक्षिः । ११. बहुल । १२. वंश । १३. खण्ड । १४. 'तर्जनक" टिक खा, 'यहननोपकरण टि.ब०, यश. पसिकायामपि । १५. महान् । १६. शब्दः। १७, विष्वग्धुष्टं दुरपवादघोषणा पशः पं०। *. 'विश्वरपुष्टानुजातो' इति Ro, टिप्पण्यो तु 'वारमेयाः पृष्टवो भवन्ति । १८. चाण्डालचितास्थानवस्त्रेण कृतकोपीनः । १९. विपरीत पीम्णौ मध्ये मध्ये पाटापाड़ित ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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