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________________ सप्तम आश्वासः फुतोपदेशः काश्यपीतलं मियासुर्वसुः-'नारव, यथैवाह पवंतलयंव सत्यम्' इत्यसमीक्ष्य' लाक्ष्यं वचन 'वेष, अशापि ययापयं वद यथायथं बव' इत्यालापबहले समन्युमानसपिलासिनीखलितोक्तिलोहले विधारामाविषयप्रजाप्रजल्पकाहले स्फुटब्रह्माण्ड पाण्डष्यनिकुतूहले समुच्छन्नति परिचवकोलाहले सत्यधर्मकर्मप्रवर्तनकुपितपुरदेवसाधशविलसनः ससिहासनः क्षणमात्रमध्यनासावित" सुखकालं पातालमुलं जगाहे । अत एवाद्यापि प्रयममाहुतिवेलापां प्रजा' जल्पन्ति-उत्तिष्ठ वसो, स्वर्ग गच्छ' इति । गति धात्र इलोकःअस्थाने यदक्षाणां नराणां सुलभं वयम् । पर दुर्गतिवर्धाि दुष्कोतिश्चात्र शाश्वती ११२७।। इत्युपासकाध्ययने वसो रसातलासावनो नामकोनविंशः कल्पः । नारदस्तमेव निवपुररीपाल्य नतव्र विनमनमरफुलनिलयनीलोत्पलस्तूपमिय कुन्तलफलापमन्मूख्य परमनिकिचनतानिरूम जातरूपमास्थाय सकलसस्वाभयप्रवानामृतवर्षाधिकरण संयमोपकरणमाकलय्य मुक्तिलक्ष्मीसमागमसंचारिका' मियोवफपरिचारिकामावृत्य शिवनोवशीकरणाम्यामिव" म्याध्यायमनुबद्धए मनोमर्कटरूपी वृक्ष को भस्म करने के लिए अग्नि-सरीखे वम ! अब भी कुछ नष्ट नहीं होगा, अतः सच बोल सच बोल ।' परन्तु बार-बार उपदेश दिए हुए नरक जाने के इच्छुवा वसु ने यही कहा-'नारद ! जो पर्वत कहता है वही सत्य है।' इस प्रकार जब बपरीक्षणीय झूठी गवाही बोल रहा था तब ऐसा कुटुम्बीजनों का कोलाहल उत्यित हुआ, जो कि महाराज ! 'अब भी सच बोलिये, अब भी सच बोलिए' इस प्रकार के शब्दों से प्रचुर था। जो कोपसहित मनवाली राज-स्त्रियों के अध्यक्त वचनों से अस्फुट था । जो खेद से व्यथित हृदयवाली नजाओं के जोर-शोर से चिल्लाने रूपी काहल ( वाद्य विशेष) वाला था एवं जिसमें ब्रह्माण्ड ( मध्य लोक ) के फटने का कुतुहल वर्तमान या। तब अधर्म कर्म ( मिथ्याभाषण ) में प्रवृत्ति करने से कुपित हुए नगर देवता द्वारा विशेष काट दिया गया वसु सिंहासन-समेत ऐसे सप्तम नरक में प्रविष्ट हुआ, जिसमें क्षणमात्र भी सुख प्राप्ति का अवसर नहीं है, इसीलिए आज भी यश में पहली आहुति देते समय ब्राह्मणजन कहते हैं'बसु उठ, स्वर्ग जा।' प्रस्तुत विपय-समर्थक नैतिक श्लोक का अर्थ यह है नीति से विरुद्ध खोटे मार्ग में दुराग्रह से प्रवृत्त होनेवाले मानवों के लिए दो वस्तुएं सुलभ होतो हैंपरलोक में दीर्घकाल तक दुर्गति और इस लोक में अमिट' अपोति ।। १२७ ॥ इस प्रकार उपासकाश्ययन में बसु की रसातल में प्राप्ति करानेवाला उनतीसा कल्प ममाल हुआ । इस घटना से नारद ने उसी वैराग्य को स्वीकार करके ऐसा केरा-समूह उत्पाटित ( लुञ्चित ) करके जो ऐसे मालूम पड़त' थे-मानों-कमनीय कामिनियों के बिलासरूपी भ्रमर-समूह के आवास स्थान वाली नीलकमलों को राशि हो है, और उत्कृष्ट परिग्रह के त्याग को बतलानेवाली दिगम्बर मुद्रा धारण करके ऐसा प्राणियों को रक्षा का उपकरण मयूरपिच्छ ग्रहण किया, जो कि समस्त प्राणियों के लिये अभय १. अपरीक्षणीय । २. 'कोपसहितचित्त' टि० ख०, पं तु' 'मनपुः दुःख' 1 ३. अध्यक्तवचन । ४. अस्फुट अव्यस्ते । ५. चन्द्रे। ६. मत्र्यलोक! ७, अप्राप्त । ८. सप्तमनरकं । ९. विप्राः । १५. स्त्री । ११. कयक। १२. ममूपिच्छं। १३, गृहीत्वा । १४. दूतो। १५. कुण्ठिका कमण्डलुं । १६. परिच्छेद ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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