SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यवास्तिलकचम्पुकाव्ये 'यदि साक्षी भवामि सदावश्यं निरये पताप्ति । मथ न भवामि सदा सस्पात्प्रसामि' इत्युभवाशयशालविद्युतमनोमृगश्चिरं विचिन्त्य। न तमस्थिग्रहणं' शाकपयोमूलमक्ष चर्या वा । नतमेतदुमा तषियामङ्गोकृतवस्तुनियहणाम् ॥१२६।।' इति च त्रिभृश्य निस्पनियानयज्ञ चरमपक्षमेव पक्षमाक्षप्सीत् । सवनु मुमुविषमाणारविन्वहदयविमिदग्विन्विरचरणप्रचारोदश्चमकरप्तिन्दुरितनीरदेवतासामन्तातराले प्रभात. काले, सेवासमागतसमस्तसामन्तीपास्तिपर्यस्तोतंसफुसुमसंपावितोपहारमहोयसि च सति ससि मृगयाष्यसनव्याजशरमीकुते कुरङ्गपोते, *अपरादपुर प्रत्यासाविसम्पर्शमात्रावयाफाशास्फटिकटितविलसनं सिंहासनमुरगत्य 'सत्यशोचाहिमाहारम्पायहं विहायसि गती जगभवहारं निहालयामि' इत्यात्मनात्मानमुत्कुर्वाणो विवादसमये तेन विनसबरंवेग नारदेन 'अहो, मृपोद्योझिविभावसो वसो, अद्यापि न किनिन्नयति । तस्सरमं धूहि सरयं बहि' इत्यनेका गुरु-पत्नी द्वारा स्वयं उस प्रकार प्रार्थना किये हुए वसु ने विचार किया-'यदि पर्वत का साक्षी होता है तब तो मेरा नरक में पतन अवश्य होगा और यदि सानी नहीं होता है तो सत्य से ( वर देने की प्रतिज्ञा से विचलित होता है। इस प्रकार उसका मनरूपी मग दोनों अभिप्रायरूपी व्याघ्र द्वारा विचलित हुआ तब उसने इस प्रकार चिरकाल तक निश्चय किया 'हड्डी (कपाल) का धारण करना, शाक, जल, व कन्दमूल का लेना अथवा भिक्षा-योजन करना ये सब व्रत नहीं है, किन्तु स्वीकार की हुई प्रतिज्ञा का पूर्ण करना ही विशिष्ट बुद्धिशाली मानवों का व्रत है ॥१२६| उसने ऐसा विचार करके नरक ले जाने में समर्थ कारण पर्वत का पक्ष ही स्वीकार किया। दूसरे दिन जब ऐसा प्रातःकाल हो रहा था, जिसमें जल देवता के केशपाश का मध्यभाग, विकसित हो रहे कमलों के मध्य में जानत हए-वत्साही भवरों के घरण-संचार से उछलते हुए पृष्ण-रस रूपा सिन्दूर से युक्त किया गया था। जब राज-सभा ऐसी हो रही थी, जो कि सेवा के लिए आये हुए सभी सामन्तों द्वारा की जानेवाली उपासना के समय गिरे हुए मुकुटों के पुष्प-समूह रूपी दी हुई भेंट से महान् प्रतीत हो रही थी। जब मृग-शावक ऐसे हो रहे थे, जो कि शिकारियों द्वारा शिकार खेलने के व्यसन के बहाने से वाणों के लक्ष्य (बौंधने योग्य ) किये गए हैं। [इसी अवसर पर ] राजा बसु, लक्ष्य से च्युतबाणवान्ना { निशाना-बुकने वाला ) होकर उसका वाण किसी वस्तु से टकराकर वापिस लौट आया तब बह ऐसे रज-सिंहासन पर आकर बैठ गया, जो कि स्पर्श मात्र से निश्चय करने योग्य व प्राप्त हुए शाकाम-स्फटिक से घटित होने के कारण सुशोभित हो रहा था । उस समय वह स्वयं अपनी आत्मा को इस प्रकार उत्कर्पता में प्राप्त करा रहा था ( अपने मुख से अपनी प्रशंसा कर रहा था कि 'मैं सत्य व शौच (लोभ-निग्रह ) आदि धर्म के प्रताप से आकाश में बैठ कर जगत का न्याय देखता हूँ।' विवाद के अवसर पर नम्र शिष्यों के लिए इच्छित वस्तु देनेवाले नारद ने कहा-'मिथ्या भाषण१. 'कीकस' 12० स०, कापालिकवतं' दि० ०। २. 'साक्षिवचन' दिख०, पर्वतवननं दिन । ३. अडीच फार । ४. विकसमान दमभयमच्छीयमानभ्रमरचरण । ५. 'बंधो' टि० स०, लक्ष्योकुत' दि. ० एवं यश पजिनायामपि । *. 'अपरामपरिघुप्रत्यावृत्यासादितस्पर्श' च. ० । 'आराद्ध परिपूप्रत्यासादितस्पर्श' १० । ६. लक्ष्यच्युतबाणः । ७. न्यायं पश्यामि । ८. उत्कर्पता प्रापयन् टि. १०, पं० तु प्रकाशयन् । ९. विनतानां । विनयानां । १०. 'भवनाग्नेः' टि० स०, तद्भिदस्तमगुल्मायाः इत्यमरः' टि० च०, पं० तु 'उभिदः तह:' । ११. विनाशं यास्यति ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy