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________________ सप्तम आश्वास ३४५ 1 पर्वतः - 'नारव, नेमस्तुङ्कारं यस्य पक्षस्य महित एवातिमूलोऽयं । यदि चायमन्यथा स्यात्तवा वाहिनीनमेव मे दण्ड: । नारदः - ' पर्यंत, को नु खल्वत्र विवदमानयोरावयोनिकषभूमिः । पवंतः - 'नारद, वसुः । कहि तहि तं समयानुसतंष्पम् । इजानीमेव "मात्रोद्वार:' इत्यभिधाय द्वावपि सौ वसुं निकवा प्रास्थिषाताम् ', ऐभिषातां च सपोपस्थितौ तेन वसुना गुरुनिविशेषमाचरितसंमानो यथावत्कृत कशिपुविधानी " विहितोधितोचितकाञ्चनवानो समागमनकारणमापृष्टी स्वाभिप्रापमभाषिषाताम् । वसुः - 'थाहदुस्तत्रभवन्ती तथा प्रातरेवानुतिष्ठेयम् । अत्रान्तरे वसुलीयलपेव क्षपायां सा किलोपाध्यायी नारवपक्षानुमतं क्षीरकवम्बाचार्यकृतं तद्वाक्यव्यायानं स्मरली स्वस्तिमती पर्वतपरिभाषामधा वसुमनुसृत्य 'वत्स वसो, यः पूर्वमुपाध्यायावन्स मापराधलक्षणावसरे वरस्यावायि, स मे संप्रति समर्पयितव्यः' दरबुवाच । सत्यप्रतिपालना सुर्वसुः - किमम्ब, संदेहस्त या सहाध्यायी पर्वतो वदति तथा त्वया साक्षिणा भवितव्यम् ।' वसुस्तथा स्वयमाचार्याण्याभिहतः ११ पर्वत - मेरा यह अर्थ कथन असङ्गत नहीं है; क्योंकि इस पद का मेरा कहा हुआ अर्थ ही ठोक है । यदि यह ठीक नहीं है तो जिल्ला-खंडन ही मेरे लिये दण्ड है ।' नारद - 'पवंत 1 इस विषय में निश्चितरूप से विवाद करनेवाले हम दोनों का परीक्षा-स्थान ( परीक्षक — फैसला करनेवाला ) कोन है ?' पर्वत - 'नारद ! राजा वसु ।' नारद - 'तो उसके पास कब चलना चाहिए ? पर्वत - ' इसी समय हो, इसमें विलम्ब नहीं करना चाहिए ।' इस प्रकार बातचीत करके उन दोनों ने वसु के समीप प्रस्थान किया और वहां उपस्थित होकर बसु के दर्शन किये। बसु ने उनका गुरु-जैसा आदर-सत्कार किया और यथायोग्य अन्न व वस्त्र प्रदान किये एवं यायोग्य सुवर्ण का दान दिया और उनसे आने का कारण पूछा। तब दोनों ने अपना-अपना अभिप्राय कह दिया । वसु - पूज्य आप दोनों ने जिस प्रकार कहा है, उसका फैसला कल प्रातःकाल कराऊँगा ।' इसी प्रसङ्ग में निस्सन्देह वसु राजा की लक्ष्मी के विनाश के लिए प्रलय रात्रि-जैसी स्वस्तिमतो नामको क्षीर-कदम्बक नामके उपाध्याय की पत्नी ने अपने पति क्षौर-कदम्बक के द्वारा किया हुआ उस वाक्य का व्याख्यान स्मरण किया, जो कि नारद के पक्ष का समर्थक था, अतः अपने पुत्र पर्वत के पराजय को नष्ट करने को बुद्धि से वह रात्रि में हो वसु के समीप गई और बोली - 'पुत्र बसु ! पहिले गुरु से छिपने का अपराध करने के समय वाला जो वर तुमने मुझे दिया था, वह मुझे अब दो ।' सस्य-रक्षण को प्राण समझनेवाले बसु ने कहा- ' माता ! उसमें सन्देह मत करो।' स्वस्तिमती - 'यदि ऐसा है तो तुम्हारा सहपाठी पर्वत जैसा कहता है उसी प्रकार तुम्हें साक्षी होना चाहिए ।' १. असङ्गतं । २. जिला-खंडनं । ३. परीक्षस्थानं । ४. समीपे । ५. न विलम्बः । ६. प्रस्थितौ । च्छादन ८ पूज्यों ९. अहं कारयेयं । १०. तिरोधानं । ११. प्रार्थितः । ४४. ७. भोजना
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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