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________________ २०० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये निर्मोजतेय तन्त्रेण यदि स्थानमुक्ततामिनि । बीस प्रत्याधक स्पर्श प्रणेयो मोक्काइक्षिणि ॥ ७६ ॥ विषसामयन्मन्प्रारमयश्वविह कर्मणः । तहि तन्मन्त्रमान्पत्य न पुढेषा भवोद्धवाः ।। ७७ ॥ सपनप गयो न स : सरियाल अन्सोवृत्तिनिरकुवा ।। ७८ ।। तान्नता श्रयः शाक्यः शंकरानुकृतागमः । कथं मनीषिभिमांन्यस्तरसासवशकधीः ॥ ७९ ॥ अर्धवं प्रत्यवतिष्ठा'"सवो, 'भवतां समये फिल मनुजः सत्राप्तो भवति तस्य प्राप्ततातीव दुर्घटा संप्रति संभातमानवद्भयतु बा. तथापि मनुष्यस्याभिलषिततत्वाबरोषः स्वतः परतो वा? न स्वतस्तथापना भायात् । परतश्चेत् । होता है तथा जो सर्वथा एकान्त (सर्वथा नित्य-आदि एक धर्म का पक्ष ) से रहित तथा कुत्सितपने से रहित है ।। ७५ ॥ शून्यावत व तन्त्र-मन्त्र से मुक्ति मानने वालों की आलोचना-जैसे अग्नि में जल जाने के कारण बीज निर्बीज हो जाता है. उसमें अंकुरों को उत्पादन करने की शक्ति नहीं रहती वैसे ही यदि तन्त्र के प्रयोग ( वैदिक कर्मकाण्ड-यज्ञादि ) से प्राणी की मुक्ति होती है तो मुक्ति चाहने वाले मनुष्य को भी आग या स्पर्श करा देना चाहिए, जिससे बीज की तरह वह भी जन्म-मरण के चक्र से छूट जादे। टिप्पणीकार के अभिप्राय से यदि निर्वाजता-जीष के सर्वथा अभाव से जीव को मुक्ति होती है तो हम यह कहग जन आ जा जीब को मुक्ति होती है तो हम यह कहेंगे जब आग जीव को शून्य मानते हो तो जीव को बिना मोक्ष किसको होगा? ।। ७६ ।। जग मन्त्र द्वारा विष की मारण शक्ति नष्ट कर दी जाती है वैसे ही मन्त्रों की आराधना मात्र से कर्मों का क्षय ( मुक्ति होता है। यदि ऐसा मानते हैं तो जिसको मन्त्र मान्य है, उसमें मांसारिक दोष नहीं पाये जाने चाहिए । अर्थात्-मन्त्र से विष-क्षय हो सकता है न कि कर्म-क्षय ॥ ७ ॥ सूयं पूजा की आलोचना- नहीं के कुल का होने पर भी यह सूर्य तो पूज्य है और चन्द्रमा पूज्य नहीं है। वास्तव में तत्त्वविचार न करने वाले प्राणी की यत्ति निरङ्कुश ( वैमर्याद ) होती है ॥ ७८ | बोद्ध मत की आलोचना-शङ्कराचार्य शे अनुसरण किये हुए आगम याला बौद्ध मत एक और तो वैतवादी (समन करने योग्य पदार्थों में प्रवृत्ति और सेवन करने के अयोग्य पदार्थों से निवृत्ति का विचार करता है, तप, संयम व भक्ष्यामध्य-आदि की बुद्धि वाला) है और दूसरी ओर अवैतवादी है, ( सब कुछ सेवन करने की छूट देता है। ऐसा मांस और गद्य में आसक्त बुद्धि वाला मत बुद्धिमानों द्वारा मान्य केसे हो सकता है ? || ७२ ।। दुसरे मन्नानुयायियों का पूर्वपक्ष-पूर्वपक्ष करने के इच्छुक आप लोग यदि ऐसा पाहगे कि आप जेनों के आगम में मनुण्य को आप्त माना है तो उसका आसपना वेसा संघटित नहीं होता जैसे वर्तमान में उत्पन्न हुए मानवों में आप्तपना घटित नहीं होता । अस्तु यदि आपके कहने से मनुष्य को प्राप्त मान भी लिया जाय तो उसे इष्ट तत्व का ज्ञान स्वयं ना हो नहीं सकता, क्योंकि बसा देखा नहीं जाता । अर्थात्-गुरु के उपदेश विना शास्त्रज्ञना नही होतो। दूसरे से ऐसा ज्ञान होता है तो वह दूसरा कौन है ? तीथंकर हे ? या अन्य कोई गृहस्थ है ? यदि तीर्थकर है? तो उसमें भी यही प्रश्न पैदा होता है। यदि तीर्थङ्कर को इष्ट तत्त्व का ज्ञान १. जीया नानि ताई जी बिना मोक्षः कस्य भवति ? २. जीवे । ३. बोज इव वाजवत् । 6. अग्निवग्यबीजवत । ५. अमीष्टः । ६. 'गाभा-काश्मिणः' इति ह. लि. का प्रती पाठः। ३. मन्यागग्ययोः प्रवृतिगरिहारबृद्धितम् । ८. सर्वत्र प्राप्तिानरमास्वतिग्। ९. दौखः । १०. यूर्य पगि चिकीरंवः । ११. स्वयं न भवति । १२. गुरूपदेश विना शास्त्रज्ञस्याभावात् । १३. तीर्थकरस्म परः कश्चिद्गुरस्ति नहि क्षीर्थकरः गृहस्या वा गुरुश्चेतीर्थकरस्ताहि तत्रापि भने तस्य को गुरुः ? एवं परम्परतयाऽनुबन्धे सति अनवस्यानिरोचो न, तेन तदभार गुदोरमा माससद्भाव घ ििारीश्वरः आगनीयः इति भावः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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