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________________ २०१ पत्र आश्वासः misat vee ? atiकरोऽन्यो वा ? तीर्थशरइवेत्तत्राप्येवं पर्यनुयोगे प्रकृतमनुबन्धे तस्मादनवस्था तवभावमप्तसद्भावं चवाः सदाशिवः शिवा पतिर्वा तस्य ततिभो एषामपि गुरुः । कालेनानवच्छेदात् ' तथाहि । अदृष्टविप्रायान्ताच्छ्विात्परमकारणात् 1 नावरूपं समुत्पन्नं शास्त्रं परमदुर्लभम् ॥ ८० ॥ ताप्केन भवितव्यम् । ह्याप्तानामितरप्राणिवद्गणः समस्ति संभवे वा चतुविशतिरिति नियमः कौतस्कुत इति वास्तव्यावर्णनमुदीर्णमोहार्णवविलसनं च परेषाम् 1 यतः 1 या नैव सवाशिषो विकरणस्तस्मात्परो रागवान् विध्यायपरं तृतीयमिति चेत्तत्कस्य हेतोरभूत् । शक्त्या चेत्परकीया कथमसौ तद्वान संबन्धतः संबन्धोऽपि न जाघटीति भवतां शास्त्रं निरालम्बनम् ॥ ८१ ॥ 'संबन्धो हि सदाशिवस्य शक्त्या सह न भिन्नस्य संयोगः शक्तेर' द्रव्यश्वाव्य 'योरेव संयोगः' इति योगसिद्धान्तः । 'समवायलक्षणोऽपि न संबन्धः शक्तेः पृथक्सद्धवावयुतसिद्धानां गुण गुण्यादीनां समवायसंबन्ध:' इति वैशेषिक तिम् । किसी तीसरे के द्वारा होता है तो उस तीसरे को इष्ट तत्व का ज्ञान चौथे के द्वारा होगा और चौथे को इष्ट तत्व का ज्ञान पांचव के द्वारा होगा । तो इस तरह अप्रामाणिक अनन्त पदार्थों की कल्पना रूप अनवस्था दोष का निरोध ( रुकना) नहीं होगा । अर्थात् उक्त दोष की आपत्ति होगी । अतः उक्त दोष से बचने के इच्छुक और आससद्भाव के इच्छुक जैनों द्वारा तत्व के उपदेष्टा सदाशिव या पार्वतीकान्त ( शिव ) हो अङ्गीकार करने योग्य हैं। जैसा कि पतञ्जलि ऋषि ने कहा है- 'बहु सदाशिव पूर्वो का गुरु है, क्योंकि उसका काल से नाश नहीं होता ।' जैसा कहा है----' अशरोरी, शान्त व वेदोत्पत्ति का उत्कृष्ट कारण रूप सदाशिव से नादरूप (शब्दात्मक) विशेष दुर्लभ शास्त्र (वेद) उत्पन्न हुआ || ८० ॥ तथा आप्त एक ही होना चाहिए। क्योंकि जैसे दूसरे प्राणियों का समूह होता है वैसा आप्तों का समूह नहीं होता। और यदि हो भो तो चोवीस संख्या का नियम कहाँ से आया ? इस प्रकार दूसरे मत वालों का उक्त कथन वन्ध्या-पुत्र के चैयं निरूपण सरीखा ( असत् ) है और वृद्धिगत मोह ( अज्ञान ) रूपी समुद्र का विलास है। क्योंकि सदाशिव वक्ता नहीं हो सकता; क्योंकि वह शरीर इन्द्रियों से रहित है । एवं उससे दूसरा पार्वती - कान्त ( शिव ) वक्ता नहीं हो सकता, क्योंकि वह सरागी है । यदि आप कहोगे कि उन दोनों से भिन्न तीसरा कोई वक्ता है, उस विषय में प्रश्न यह है कि वह तीसरा किस कारण से उत्पन्न हुआ है ? यदि कहोगे कि शक्ति से हुआ तो शक्ति तो भिन्न है, भिन्न शक्ति से वह शक्तिमान कैसे हो सकता है ? क्योंकि उन दोनों का कोई संबंध नहीं है । यदि संबंध मानोगे तो विचार करने पर उनका कोई संबंध भी नहीं बनता। अतः आपका नादरूप शास्त्र (वेद) निराधार ठहरता है, क्योंकि उसका कोई वक्ता सिद्ध नहीं होता || ८१ ॥ शक्ति से सर्वथा भिन्न सदा शिव का शक्ति के साथ संयोग संबंध घटित नहीं होता, क्योंकि शक्ति द्रव्य नहीं है; 'संयोग संबंध दो द्रव्यों का ही होता है' ऐसा योगों ( वैशेषिकों ) का सिद्धान्त है। तथा समवाय संबंध भी नहीं हो सकता; क्योंकि 'जो पृथक सिद्ध नहीं हैं ऐसे गुण गुणी, आदि का समवाय संबंध होता है' यह वैशेषिक सिद्धान्त है, जब कि शक्ति तो शिव से पृथक् सिद्ध भावरूप वस्तु है | अब मनुष्य को आप्त मानने में जो आपत्ति की गई है उसका निराकरण करते हैं - तोथंङ्कर के पूर्वजन्म १. गौरी । २. अङ्गीकर्तव्यः ३. सदाशिवः । ४ वः कथं न । ९. सदाशिवादन्ये मोहो वर्तत एव । ६. जैनः प्रा । ७. शक्तिमान् । ८ संबंधास्य पर्याय एवं संयोग एक एवेत्यर्थः । ९. द्रव्यत्वाभावात् शक्तिर्भावरूपा तेन हेतुना न संयोगः | १०. द्वारे द्रव्ययो । ११. अधक सिद्धानां पदार्थानां १२. गुगाः ज्ञानादय गुण आत्मा । २६
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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