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________________ पी आवासः १९ सिद्धान्तेयत्प्रमाणेऽन्यायकाध्येऽन्यदीहिते । सत्यमाप्तस्वरूपं च पिवित्रं शेवरॉनम् ॥ ७२ 11 एकान्तः शपथरचंय त्या तस्वपरिग्रहे । सन्ततस्वं न होक्यन्ति परप्रत्ययमानतः ।। ७३ ।। वाहच्छेदकबाशुद्ध हेग्नि का दामक्रिया । वाहदकधाशुद्ध हेम्नि मा शपपक्रिया ।। ७४ ।। पदृष्टम मुमान छ प्रतीति लौकिको भजेत् । तपाहुः मुविवस्तव ज कुहकअजितम् ॥ ७५ ॥ विशेषार्थ:-जैसे 'शैवदर्शन में तीन पदार्थ माने हैं-ईश्वर ( श्री शिव ), जोव और संसारवन्धन । उनमें से परमेश्वर, जो कि अनादि, सर्वज्ञ व अशरीरी तथा प्राणियों द्वारा किये हुए शुभाशुभ कर्मों की अपेक्षा सृष्टिकर्ता है, परन्तु जब ईश्वर को अशरीरी मानने पर सृष्टिकर्तृत्व में निम्नप्रकार बाधा उपस्थित हुईशङ्काकार-'ईबर स्वतत्र साष्टकता हो, परन्तु मह अशरीरी होने से सृष्टिकर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि लोक में दारोरी कुम्भकार घटादि कार्य करता है और ईश्वर को शरीरी मानने पर वह हम लोगों की तरह क्लेश-युक्त, असर्वज्ञ और परिमित शक्तिवाला हो जायगा।' उक्त वाघा दूर करने के लिए दर्शनकार ने उसमें शाक्त ( मन्त्र-गन्य ) शारीर स्वीकार किया। इस दर्शन की मान्यता है कि मलादि न होने के कारण श्रीशिव का शरीर हम लोगों के शरीर-सदा नहीं है किन्न गाक्त-मन्त्र-जन्य है। इसीप्रकार इसमें पाया पदार्थ ( संसारवन्यन ) के पूर्व में चार मेद माने हैं। पश्चात् पाँच भेद गान लिए । अर्थात्-पाशपदार्थ के चार भेद हैं। मल ( आत्माश्चित दृष्टिभाव-मिथ्याज्ञानादि), नर्म { धर्म व अधर्म ), माया ( समस्त का मूल कारण अविद्याप्रकृति है, और रोध पक्ति ( मलगत दविक्रया शक्ति की आवरण सामर्थ्य )। पश्चात् दर्शनकारी ने परचम पाश ( शिवतत्व-वाच्य माथात्मा-विन्दु) रूप स्वीकार किया | अभिप्राय यह है कि शैवदर्शन पूर्वापर विपक्ष होने में विचित्र है। क्योंकि उसमें मोक्षोपयोगी तत्वों व शिवतत्व का स्वरूप सिद्धान्त में भिन्न और दर्शन में भिन्न है। इसीप्रकार काव्य में भीशिव का पार्वती परमेश्वर के साथ विवाह का निरूपण है और प्रवृत्ति में भी भिन्न-भिन्न है 11७२सा तत्व को स्वीकार करने में एकान्त ( पक्ष) और कसम खाना दोनों ही व्यधं हैं। क्योंकि सज्जन पुरुष दूसरों पर विश्वास करने मात्र से नत्व स्वीकार करने के इच्छुक नहीं होते । तपाने, काटने और कसोटी पर घिगने में जो शोना खरा निकलता है, उसके लिए कसम खाने से पया लाभ ? तथा तपाने, काटने और कसोटी पर घिसने से जो सोना अशुद्ध ठहरता है उसके लिए कसम खाना बेकार है ।। ७३-७४ || विद्वान् पुरुष उसी की यथार्थ तत्व कहते हैं, जो कि प्रत्यक्ष, अनुमान च लौकिक अनुभव से ठीक प्रमाणित १. पोण शपथेन च सन्तः तत्वं नेच्छन्ति । २. प्रत्यक्ष । ३. एकान्तकुत्सितवजितम् । ४. तदनं शवदर्शन---पतिपशुपाभेदात् भयः पदार्या इति । पतिरीपवरः । पशु वः । पाश: संसारबन्धनम् । तर पति पदार्थः शिवाभिमतः । रावंदर्शनसंग्रह पृ० १७४ से संकलित-सम्पादक प्राणिकृतकमर्पिक्षया गरमवरस्य कर्नत्योपपत्तेः। सर्च० पृ. १७६ तथा चीन-रावतः सर्षपाचात् साधनाङ्गफलः सह । यो यज्जानाति कुरुतं स तदेवेति सुस्थितम् ॥ १॥ सर्व. पू. १७८ से गंकनित-सम्पादक ५. तथा च विदर्शन-तथा चौका परमेश्वरस्य हि मनवमर्मादिपाशजालाम भवन प्राकृतं दारीरं न भवति किन्तु शास्तम् । मलाद्मसंभवाच्छापत नपुर्नतादृशं प्रभोः । प्रमोवपुः शाक्तं न खंतादृशं मलाद्यसं गवान् । एतादृशामस्मदादिदारीरसदृशं । सर्वदर्शन संग्रह प० १७८-१७९ । ६. पाशश्चतुर्विधः मलाममायारोधनशक्तिभेदात् ७. अर्थपञ्चकं पाशाः । सर्वदनसंग्रह प० १९७ से संचालित- सम्पादक
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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