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________________ १२८ यशस्तिलकनभ्यूकाव्ये अमस्तिलोतमाचितः श्रीरतः श्रीपतिः स्मृतः । अर्धनारीश्वरः भुस्तथाप्येषां किलाप्तता ॥ ६५ ॥ वसुदेवः पिता यस्य सवित्री देवकी हरेः । स्वयं च राणधर्मस्थचित्रं देवस्तथापि सः ।। ६६ ॥ जो करे या परे । सितिपत्ती स्लः । 'वधिसस्पेति चिस्यताम् ॥ १७ ॥ कपर्दी दोषयानेष निःशरीरः सदाशिवः । भATमा प्यावशक्तेश्च कर्य तषागमागमः ।। ६८ ।। परस्पर विरुद्धायमोश्वरः पञ्चभिर्मुखः । शास्त्र मास्ति भवेसत्र कतमार्थविनिश्चयः ॥ ६९ ।। सदाशिवकला बन्ने यथायाति पुगे युगे । कयं स्वरूपभेवः" स्यात्काञ्चनस्य कला स्विष || ७० ॥ भैस सननामवं पुरस्त्रयविलोपनम् । ब्रह्महत्याकपालिस्व मेताः कीदाः किलेश्वरे ।। ७१॥ आगर व विष्णु-त्रादि देवताओं में रागादि दोषों का सद्भाच ( मोजूदगो ) उन्हों के शास्त्रों से हो जान लेना चाहिए । क्योंकि दूसरों के गैरमौजूद दोष प्रकट करने में महान् पाप है ॥६४|| देखिये-ब्रह्मा अपनी तिलोनमा नाम की अप्सरा में आसक्त हैं और विष्णु ( श्रीकृष्ण ) अपनो लक्ष्मी प्रिया में लम्पट हैं एवं महेश अर्धी रांश्वर प्रसिद्ध हो हैं। आश्चर्य है फिर भी इन्हें आप्त माना जाता है ।।६५|| विष्णु ( श्रीकृष्ण ) के पिता वसुदेव थे और माता देवकी थी एवं स्वयं राजधर्म का पालन करते थे, आश्वयं है फिर भी तो वे देव माने जाते है ||६| यहाँ पर विचार करने को बास है, कि जिस विष्णु के उदर में तीन लोक बसते हैं और जो सर्वव्यापी है उसका मथुरा में जन्म और बन में मत्यु कैसे हो सकती है? क्योंकि तीन लोक में व्यापक रहने वाले के जन्म-मरण घटित नहीं होते ॥६७| संसारो शिव रागादि दोष-युक्त होने से अप्रामाणिक है, अतः उसका द्वारा किया हआ द भी प्रमाण नहीं हो सकता। इसीप्रकार सदाशिव आगम-रचना करने में समर्थ नहीं हो सकता: क्योंकि यह शरीर-रहित होने के कारण जिल्हा व कण्ठ-आदि उपकरणों से मान्य है। जैसे हस्तादि-शून्य कुम्भकार घट-रचना करने में समर्थ नहीं होता अत: उक्त दोनों से आगम की उत्पत्ति कैसे घटित हो सकती है ? ॥६८|| जब श्रीशिव पांच मुखों से परस्पर विरुद्ध अभिप्राय वाले आमम का उपदेश देता है, तब उनमें से किसी एक अर्थ का निश्चय करना कैसे सम्भव है ? अर्थात्-उनमें से कौन-सा अर्थ सही जानना चाहिए ।।६।। यदि प्रत्येक युग ( कृत-श्रेता व द्वापर-आदि ) में श्रीशिव ( मद्र ) में सदाशिव को कला ( अंश) अवतरित होती है तो सदाशिव व सद्र में स्वरूप-भेद क्यों है ? अर्थात्-सदाशिव वीतराग और शिव सरागी म्यों है ? क्योंकि समवाधिकारण-सरीखा कार्य होता है, जैसे सुवर्ण-खण्ड सुवर्ण ही होता है। भावार्थ-जब कार्य उपादान कारण के सदृश होता है, जैसे सुवर्ण-खण्ड सुवर्ण ही होता है तब श्री शिव भी सदाशिव की पाला होने से सदाशिव का कार्य है, अतः सदाशिव-सरीषा बोतराग व अशरीरी क्यों नहीं है ? इसमें स्वला भेद क्यों है ? अर्थात् -यह सरागों व सशरारी क्या है ? ||३०|| भिक्षा मांगना, ताण्डव नृत्य करना, नग्न रहना, त्रिपुर को भस्म करना, ब्रह्मा का मुख काटना, तथा हाथ में खप्पर रग्यना पे शिव की क्रीड़ाएं हैं । तथापि उसे आप्त मानना आश्चर्यजनक है ।७१॥ शेवदर्शन विचित्र है, क्योंकि उसमें तत्व और आप्त का स्वरूप सिद्धान्त रूप में कुछ अन्य कहा गया है और दर्शनशास्त्र में कुछ अन्य है एवं काश्य शास्त्र में अन्य प्रकार है तथा व्यवहार में भिन्न प्रकार है। १. कदाचिदपि । २. अत्र विचार: कर्तव्यः, तेन दशावताराः गृहीता इत्यसंबद्धम् । ३. यो रागादिदोपवान् संसारी शिवः स तावप्रमाणं तत्ततागमोऽपि प्रमाण न भवति । यस्तु सदाशिवः स ागर्म क तुमशक्तः जिह्वाफण्ठाग्रुपकरणाभावात्, हस्तादिरहितः कुंभकारों यथा घटं कर्तुमगवतः । ४. रुद्रस्य पंचमुखानि वर्तन्ने। '५. असी रागी, सपिरागः इति भेदः कथं स्यादिति पक्षः, कारणसदर्श कार्य भवतीति हेतोः । ६.काननस्य खंड कांचनम भवतीति दृष्टात्तः। ७. भिवा।८. कपालेन भिक्षार्थ गछति।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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