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________________ ११० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये सिंहः सुखं निवसतापचलोपकण्ट्रे सोत्कष्ठमेणनिश्चयाचरतरत् स्थलोषु । सत्याः परेपि विपिने विलसन्वशङ्क नाकं गतोऽयमधुना मनु विश्वकटुः ॥१९॥ इति संशोध्य 'हहो स्वपरजनपरीक्षणमायाकार मायाकार, कार्यन्तामनयो देवसंदोहसाक्षिणीः पितृप्तोकसाहाचारिणोः पायकप्रदानवहायिकाबाहायपुरःसरसमयाः क्रियाः । प्रवाप्पन्सामनयोम्मिा बननीजनकयोरिव सर्वत्र सत्त्रसभामण्डमा. धिपाः प्रपाः' इत्यन्वतिष्ठत् । समस्तप्तस्वसवयहस्य, शुभषामोदय, पुनरस्सि बल खेचरीसंगौतकमुखरचूलिकाचक्रवालासुबेलशलापरविग्वेवताविनोबायतनं शिखण्डिताण्डवमण्डनं नाम धनम् । यबेयं देहिनो वर्णविषयतां नयन्ति। सपाहि-तुर्जनहृदयमिय दुष्प्रवेशम्, प्रलयकालमिव भयानकम, निगद्यागममिय गहनावसानम्. युद्धापकमियाकारण कुत्ते के समीप आया था, उस कुत्ते ने ( जो कि पूर्वभव में चन्द्रमति का जीव था), जो इस प्रकार मान रहा था कि इस मोर के घात करने में मेरा यह प्रेरणा का उपक्रम ( जानकर मारम्भ करना ) है.यमराज की अधीन अवस्था में ला दिया (मार डाला। फिर वह कुत्ता भी निकटतर जुआ खेलनेवाले व 'इस मोर को छोड़ो-छोड़ो' इस प्रकार से विशेषरूप से वेग-वाले गले के शब्द पूर्वक चिल्लाते हुए राजा द्वारा शतरंज-क्रीड़ा छोड़कर फलक से जिसको मस्तक पर प्रहार की निष्ठुर अवस्था दो गयी है, मरणावस्था को प्राप्त करता हुआ । अथानन्तर यशोमति महाराज ने गले से निकले हुए प्राणवाले इन दोनों मोर व कुत्ते को बिना इच्छा से उत्पन्न हुई मृत्यु जान कर शोकरूपी रोग से व्याप्त हुए शरीरवाला होकर निम्न प्रकार शोक प्रकट किया-हे मयूर ! जब तुम, जो कि राजमहल को अलंकृत करने में शिरज सरीखे हो च रमाणयों का मानारजन करनेवाले हो एवं जिससे क्रीड़ा भूमि पर स्थित पर्वत की शिलातल पर चित्ररचना होती है, मर चुके तब स्त्रियों की क्रीडा से उत्पन्न हुए हस्तताड़न-विधान को, जो कि नृत्य का अनुसरण करनेवाला है, कौन करेगा ? ॥ १८ ॥ यह शिकारी कुत्ता निस्सन्देह स्वर्ग चला गया, अतः अब सिंह पर्वत के समीप सुखपूर्वक निवास करे एवं मृग-समूह उत्कण्ठापूर्वक वनस्थलियों में यथेष्ट विहार करे तथा दूसरे प्राणो भी वन में निःशङ्कतापूर्वक विशेषरूप से क्रोड़ा करें। ॥ १५ ॥ फिर यशोमति महाराज ने इस प्रकार किया अपने व दुसरे लोगों की परीक्षा करने में श्रीनारायण-सरीखे परीक्षक हे द्वारपाल ! इस मयूर व कुत्ते के निमित्त से तुम्हारे द्वारा ऐसी क्रियाएं कराई जावें, जो कि ब्राह्मण समूह के प्रत्यक्ष विषयीभूत हों एवं पितृलोक-सरीखों (मशोध व यशोधर-आदि पूर्वजों-जैसो ) हैं। तया अग्निसंस्कार, वैहायिक व मृत की मासिक क्रिया और पाण्मासिक आदि काल जिनमें वर्तमान है। इसीप्रकार चन्द्रमति व यशोधर महाराज सरोखे इनके उद्देश्य से सर्वत्र विशेषरूप से ऐसो प्याऊँ दान कराई जावें, जिनमें भोजनशाला, गोष्ठीशाला व छत्रादि स्थान, इनके अधिकारी वर्तमान हों। समस्त प्राणियों में करुणा से व्याप्त मनवाले व पुण्यरूपी तेज के उत्पत्तिस्थान ऐसे हे मारिदत्त महाराज ! इसके पश्चात्-मोर-पर्याय व कुत्ते की पर्याय के अनन्तर-दूसरा भव वर्णन किया जाता है। विद्यारियों के संगीत से शब्दायमान शिखर-मण्डलवाले सुवेल पर्वत से पश्चिम दिशारूपी देवता का क्रोडा-मन्दिर विखण्डिताण्डवमण्डन' नाम का धन है। विद्वान् लोग जिसका निम्न प्रकार वर्णन करते हैं जो दुष्ट-हृदयसरीखा दुष्प्रवेश ( दुःख से भी प्रवेश करने के लिए अशक्य ) है। जो प्रलयकाल-जैसा भयानक है । जो गणितशास्त्र-सा अवसान ( अखीर ) में गहन (प्रवेश करने के लिए अशक्य व पक्षान्तर में क्लिष्टता से जानने. योग्य ) है। जो आत्मज्ञान-सरीखा अलब्धमध्य संचार है ( जिसके मध्यभाग में पर्यटन प्राप्त करने के लिए अशका १, रूपकाक्षेपालंकारः। २. हेत्वलंकारः।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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