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________________ पञ्चम आश्वासः १०९ केकिनमेनमापाविप्तामृतमतिमहादेवोनोहं घरत बनीताहत मारयतेति परिदेवनमुखरमुखीभिः सोपानमार्गेण निलोठितः, शुनीमनुना व तेम ममापातामपूरमारणे प्रेरणोपक्रम इति मन्यमानेनापवान्तरेऽवसन्नशरीरतया समागतः समबतिवशां शामहमानिन्ये । क्षितिपसिना च सेन समीपसंपादिततेन मुच्च मुञ्चेमं चित्रपिङ्गलमातीवरवरगलं पिरता सारफेलिमपहाषाफाण शीर्षनेयो वृद्धवत प्रहारकलः सोऽपि भण्डिलस्तामेव विकसकरात्मजायल्यामवस्थामनु ससार । राजा गलनिर्गतप्राणयोरावयोरकामकृतामुपसंपन्नतामवेत्य शोकातसंकुलकायः प्रासादमण्डनमणी रमणौविनोवे फोडावनीधरशिलातलचित्रलेखे । को नाम केलिफरतालविधि बधूनां नृत्तानुगं त्वयि करिष्यति कीतिशय ॥१८॥ के राजमहल में साथ-साथ निवास कर रहे थे तब एक समय में (यशोधर का जीव जो मोर हुआ हूँ) ऐसी अन्तःपुर में निवास करनेवालो दासियों के नूपुरों की मञ्जुल ध्वनि से, जिसमें गमनाभिनाय की अधीनता से शब्द करते हुए कमर को करधोनी में बंधे हुए मणिकङ्किणी-समूह की मधुर ध्वनि पाई जाती है एवं जिसकी ध्वनि जलसे भरे हुए मेघों की ध्वनि-सरीखी है, आनन्दित किये जा रहे मनवाला होकर सुभगकन्दर्प' नामक राजमहल को मोड़ियों से सातवें तल्ले पर चढ़ गया । वे दासियां ? जिनका शरीर अन्तःपुर की कुटुम्बिनी स्त्रियों के अलंकारों से विकृत होरहा है एवं जिन्होंने अमृतयति महादेवी से मिलने के लिए अपनी गमनक्रीड़ा शीन प्रकट को है। फिर-भूतकाल संघमा कोचर मान्दर में ए ना हार की भूमि के स्मरण से प्रकट हुई चित्तवृत्ति के कारण मैं { यशोधर का जीव मोर ) उस 'सुभग कन्दर्ग' नामक महल के मांतवें तल्ले पर कुछ विलम्ब करता हुआ उस महल में अल्पकाल पर्यन्त स्थित हुबा और जब वे ( अमृतमति महादेवी के दर्शनार्थ आई' व स्त्रियों )वापिस चली गई तब उस अमृतमति महादेवी को उस कुबड़े के साथ मैथुन मोहा करनेवाली देखकर मेरे बुद्धिरूपी नेत्र बढ़े हुए अमयांदीभूत क्रोध से विकल ( अन्ध ) हुए। फिर मैंने निम्न प्रकार उपायों से उस कुबड़े व अमृतमसि महादेवी के संभोग-सुख में विघ्न उपस्थित किया। ऐसी चांचों के प्रहारों से, जिनमें विस्तृत क्रोध से टूटती हुई चोंच के टुकड़ेरूपी उल्काजाल ( बिजली-समूह ) को वृष्टि से टुकड़े पाये जाते हैं और धाएं व दाहिने पंखों के प्रहारों से, जिन्होंने गाढ़ क्रोध से मष्ट होते हुए पिच्छों द्वारा अकस्मात् केतुग्रह का उदय उत्पन्न किया है, एवं दिर के गले के प्रहारों से, जिन्होंने हड्डियों के अखीर में लगे हुए नख व मुख के मार्गों से ऊपर उछलती हुई रुधिर को छटाओं से असमय में संध्याकालोन लालिमा को श्रेणियाँ विस्तारित की हैं। फिर ऐसा करने से मुझे किसी कुटुम्बदासी ने जिसका शरीर, युद्धरूपी ब्रह्मा को मानसिक एकाग्रता के समीप है, ताम्बूलादि के पात्र के संपुटक से अत्यन्त निर्दयपन पूर्वक प्राण निकलने पर्यन्त जरित वरोरवाला किया। किसी कुटुम्बदासी ने वेतलता से, किसी दूसरी कुटुम्ब दासो ने पंखे से किसी दासी ने विस्तृत लाठी से तथा किसी ने सुपारो-वगैरह फल-समूह को एवं किसी ने जूते से मुझे जरित शरीरवाला किया 1 इसीतरह दुसरी अन्तःपुर की स्त्रियों ने भी, जिन्होंने करचुकी-समूह के शरीर अच्छी तरह उत्साहित किये हैं, एवं 'अमृतमति महादेवी के साथ द्रोह करनेवाले इस मयूर को तुम लोग पकड़ा, चाँधी, नावित करो व जान से मारो' इसप्रकार रोने व विलाप करने में जिनके मुख वाचाल हैं, उन प्रसिद्ध उपकरण-समूह ( कपूर का पिटारा व हँसिया आदि साधन ) से मुझे अत्यन्त निदंय हृदय पूर्वक प्राण निकलने पर्यन्त जर्जरित शरीरखाला किया। उक स्त्रियों से सीढ़ियों के मार्ग से भेजे हुए मुझे ( मोर को 7, जो कि आखिरी शरीर के
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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