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________________ अष्टम आश्वासः कर्माण्यपि यदी मानि साध्यान्येवं विषंनयेः । अलं तपोजपाप्तेष्टि 'माध्ययन कर्मभिः ||१८३|| योऽविचारितरम्येषु क्षणं बेहातिहारिष्ठु । इन्द्रियायेंषु वश्यात्मा सोऽपि भांगी किलोच्यते ॥ १६४॥ यस्येन्द्रियार्थतृष्णापि जनंरीकुरुते मनः । तद्विरोषभुवो वास्मः सप्सिति कथं नरः ।। १८५ ।। आत्मज्ञः संखितं शेषं पालना योग फर्मभिः । कालेन पयति योगी रोगीव 'करूपताम् ॥ १८६ ।। ४२३ अधरोष्ठ के प्रान्तभाग में कनिष्ठिका अङ्गुली को स्थापित करना चाहिए। इसके पश्चात् अन्तर्दृष्टि द्वारा अव लोकन करने पर बिन्दु का दर्शन होता है। जैसे पीतविन्दु के दर्शन से पृथिवीतत्त्व का श्वेतविन्दु के दर्शन से जलतत्त्व का, अरुणविन्दु के दर्शन से तेजतत्व का, श्यामबिन्दु के दर्शन से वायुतत्व का और पीतादिवर्ण-रहित परिवेष कहो है। से प्राणायाम की बेला में अर्द्धचन्द्ररूप कला का चिन्तवन करते हुए नाद ( ध्वनिविशेष - अजा शब्दातुकरण ) करना चाहिए । इसके बाद वायु के बहून व स्थान का ज्ञान करने के लिए कहा गया है--प्राणियों को पिङ्गला नामकी दक्षिणनाड़ी, इड़ा नामको बामनाड़ी एवं सुषुम्ना नामकी मध्यवर्ती नाड़ी है। वायु का संचार ढाई घड़ी पर्यन्त पिङ्गला से होता है, बाद में ढाई घड़ी तक इडा से होता है । पुनः उतने काल तक पिङ्गला से पश्चात् उतने काल तक इड़ा से होता है। इस प्रकार दिन रात रिहिट की घरियों के घूमने की तरह दोनों नाड़ियों से बापू वहतो है । एक एक घड़ी में ६० साठ पल होते हैं और एक एक पल में श्वास-प्रश्वास छह होते हैं, इस प्रकार एक घड़ी में ६०x६ = ३६० श्वास-प्रश्वास होते हैं और ढाई घड़ी में ९०० श्वास-प्रश्वास होते हैं। अर्थात् एक घंटे में ९०० श्वास-प्रश्वास होते हैं । इस प्रकार सूर्योदय से लेकर पुनः सूर्योदय पर्यन्त ( २४ घंटे में ) २१६०० श्वास-प्रश्वास होते हैं । इस प्रकार नाड़ी संचरण की दशा में वायु का संचार होने पर पृथिवीयादि सत्वों का ज्ञान होता है । इसी प्रकार योगी प्राणायाम विधि से निम्नप्रकार संप्रज्ञातसमाधि को नाभि, नेत्र, ललाट, समस्त तड़ियों का समूह, तालु, अग्नितत्ववाली नायिका, दक्षिणनाड़ी, बामनाड़ी, जननेन्द्रिय व हृदङ्कुर इनके प्रमुख मार्ग द्वारा करता है ( जिसे हम धारणा के विवेचन में स्पष्ट कर चुके हैं ) और जब मरणवेला होती है। तब मुक्ति की प्राप्ति के लिए असंप्रज्ञात समाधि करता है, जिससे वह मृत्यु से वञ्चित होता है ।। १८०-१८२ ।। यदि इस प्रकार के प्राणायाम आदि उपायों से इस कर्मों का क्षय हो सकता है तो उनके क्षय के लिए तप, जप, जिनपूजा, दान व स्वाध्याय आदि क्रियाकाण्ड व्यर्थ हो जायेंगे || १८३ || आश्चर्य है कि वह मानव भी, जिसकी आत्मा विना विचारे मनोश प्रतीत होनेवाले व क्षणभर के लिए शारीरिक पीड़ा दूर करनेवाले इन्द्रियों के विषयों में वशीभूत है, निस्सन्देह योगी ( ध्यानी ) कहा जाता है ? ।। १८४ ।। इन्द्रियों के विषयों hat तृष्णा जिसके मन को पीड़ित करती है, वह मानव इन्द्रियों के रोकने से उत्पन्न होनेवाले मोक्षरूपी तेज की प्राप्ति की इच्छा कैसे कर सकता है ? ।। १८५ ।। आपके यहाँ आत्मज्ञानी मुनि उस प्रकार संचित ( पूर्व में बधि हुए) दोष ( राग, द्वेष व मोहादि ) को यातना ( शारीरिक तीव्रवेदना ) व योगकर्मी ( प्राणायाम - आदि १. जिनपूजा २ इस्ट्रिय । ३. तेजसः । ४. कथं प्रातुमिच्छति ? ५ लङ्घनादि तीव्र वेदना । ६. योगः औपनादि • प्रयोगः ध्यानं च ७ क्षयं कुर्वन् । ८. नोरोगतां । *. प्रस्तुत लेखमाला 'पासजलयोगदर्शन' के आधार से गुम्फित की गई है— सम्पादक
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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