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________________ यशस्तिलकचम्पूकाच्ये नासापुट से बाह्य वायु को शरीर के मध्य प्रविष्ट करके शरीर में पुरने को पूरक कहा है। उस पूरक वायु को स्थिर करके नाभिकमल में घट की तरह भरकर रोके रखने को कुम्भक कहा है । पश्चात् उस वायु को धीरे-धीरे बाहर निकालने को रेचक कहते हैं । प्राणायाम से स्थिर हुआ नित्त इन्द्रियों के विषयों से संयुक्त नहीं होता और ऐसा होने से इन्द्रियां भी विषयों से संयुक्त नहीं होतों चित्त के स्वरूप को अनुकरण करनेवाली हो जाती हैं। इसी को प्रत्याहार कहते हैं । ४२२ जिस देश में ( नाभिचक्र, हृदयकमल, नायाग्र, भ्रुकुटि का मध्यभाग व मस्तक आदि देश में ) ध्येम ( प्रणव - ओंकार मन्त्र आदि । चिन्तनीय है, उस देश में चित्त के स्थिरीकरण को वारणा कहते हैं | पौराणिकों ने कहा है कि 'प्राणायाम से वायु को वश में करके और प्रत्याहार द्वारा इन्द्रियों को वश करके पश्चात् नाभिचक्र आदि देशरूप शुभाश्रय में चित्त को अवस्थिति ( एकाग्रता ) करे 1 प्रसन्नवदन ( विष्णु आदि ) ध्येयरूप के ज्ञान के ऐसे प्रवाह को ध्यान कहते हैं, जो कि एकाग्ररूप और दूसरे विषयों के व्यवधान शून्य है ।" * पोराणिकों ने भी यही कहा है । 'वही ध्यान ध्येय के आवेश के वश जब ध्यान व ध्याता की दृष्टि से शून्य होकर ध्येयरूप अर्थमात्र को ग्रहण करनेवाला होता है उस काल में ध्यान विद्यमान होकर के भी ध्याता, ध्यान व ध्येय आदि विभागको ग्रहण न करने के कारण स्वरूप शून्य की तरह हो जाता है, उसे समाधि कहते हैं ।" समाधि के दो भेद हैं--संप्रज्ञात व असंप्रज्ञात समाधि । उक्त आठ योग ( ध्यान ) के साधनों में से यम, नियम, आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार ये पाँच योग के बहिरङ्ग सावन है, क्योंकि ये चित्त की स्थिरता द्वारा परम्परा से ध्यान के उपकारक हैं। धारणा, ध्यान व समाधि ये तीन योग के अन्तरङ्ग कारण हैं; क्योंकि समाधि के स्वरूप को निष्पादन करते हैं । इसप्रकार यह ध्यानरूपी वृक्ष चित्तरूपी क्षेत्र में यम व नियम से बीज प्राप्त करता हुआ आसन व प्राणायाम से अङ्कुरित होकर प्रत्याहार से कुसुमित होता है एवं धारणा, ध्यान व समाधिरूप अन्तरङ्ग साधनों से फलशाली होता है | प्राकरणिक अभिप्राय यह है कि योगी (ध्यानी ) को पूर्वोक यम (अहिंसा आदि ) व नियम ( शौच व सन्तोष आदि ) की धारण करते हुए आसन (पद्मासन आदि ) की स्थिरता से प्राणायाम को प्रतिष्ठित करना चाहिए और प्राणायाम को बेला में सबसे प्रथम प्रणवमन्त्र ( ओंकार ) रूप ध्येय तत्व का चिन्तन करना चाहिए | पश्चात् पीत व शुभ्र आदि बिन्दु का दर्शन करना चाहिए, जो कि पृथिवीतत्त्व, जलतत्त्व व तेजतत्व आदि के ज्ञान में साधन है। अर्थात् प्राणायाम के समय योगों को मुख के दक्षिण भाग पर व वामभाग पर क्रम से दाहिनी व बाई हस्ताङ्गुलियों को तत्तत्स्थानों पर स्थापन करने के बाद जैसे कानों में अष्ठ को, नेत्रप्रान्त में तर्जनी को, नासापुट में मध्यमा बङ्गुलि को, कर्व ओष्ठ के प्रान्तभाग में अनामिका को और १. तथा चाह पतञ्जलिः स्वविषयासंगे चित्तस्त्ररूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः २. P " ३. तथा चोक्तं विष्णुपुराणे — प्राणायामेन पवनं प्रत्याहारेण चेन्द्रियम् । वशीकृत्य ततः कुर्यात्तिस्थानं शुभाश्रये || १ || ( बि० पु० ६४७२४५ ) ४. तथा चाह पतञ्जलिः -- तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ( पा० यो० सू० ३२ ) * तथा चोक्तं विष्णुपुराणे " ( पात० यो० सू० २०५४ ) ( पात० यो० सू० ३११ ) देशबन्यश्चिसस्य धारणा तद्रूपत्यकामा संततिश्वान्यनिःस्पृहा । नद्वयानं प्रथमेरः षद्भिनिष्पाद्यते नृप ॥ १ ॥ ( वि० पु० ६।७।८९ ) ५. तथा चाइ पतञ्जलिः - तदेवार्थमात्र निर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः । ( पात० यो० सू० ३।३ ) *
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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