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________________ ४१२ घत्ता यशस्तिलकचम्पूकाव्ये निदिकञ्चनोऽपि गते म कानि जिन विशसि निकाम कामितानि । नंपात्र चित्रमयवा समस्ति वृष्टिः किमु लामिह नो पकास्ति ॥१३४॥ पद्धतिका हति सदमृतनाथ स्मरशरमायः त्रिभुवनपतिमतिकेतन"। मम विंश जगदीश 'प्रामनिवेशा त्वत्पानुतिहदयं जिन ॥१३५।। अमरतरुणीनेत्रानन्दे महोत्सवाचनमाः । "स्मरमदमपध्वान्ताम्बले मतः परमोज्यमा अबयाहृदयः कर्मारातो नते कृपात्मवानिति र विसदृशष्यापार तथापि भवान् महान ।।१३६।। अनन्तगुगन्निधो नियत बोषसंपन्निधो पताग्घिषसंस्तुते परिमितोक्तवृत्तस्थिते । जिनेश्वर सतीदशे स्वयि मयि स्फुटं तादृशे कथं सशनिश्चयं तस्विमस्तु "वस्तुद्वयम् ॥१३७।। "दलमतुलस्या'ग्वाणोपथस्तवनोचित स्वयि गुणगणापात्रः स्तोमवस्य हि मावशः । प्रणतिविषये व्यापारेऽस्मिन्पुनः सुलभे जन: ५५ कयमयपवागास्ता स्वामिन्नतोऽस्तु नमोऽस्तु ते ।।१३८|| वही निन्दा के योग्य है। क्योंकि उल्लू के दिन में भी अन्धे हो जाने पर कोई भी सूर्य को निन्दा नहीं करता हे जिन! आपके पास कुछ भी नहीं है. अर्थात-आप धन-धान्यादि परिग्रह से रहित हैं तो भी तुम जगत के लिए कौन कौन सी यथेष्ट इच्छित वस्तुएं प्रदान नहीं करते? किन्तु इसमें आश्चर्य नहीं है, क्योंकि आकाश के पास कुछ भी नहीं है फिर भी क्या उससे जलवृष्टि होती हुई नहीं देखी जाती ? ॥ १३४ । इसलिए हे मोक्षके स्वामी! हे काम-बाणों के विध्वंस करनेवाले हे तीनलोक के स्वामियों की सेवा के मन्दिर ! हे कर्मों के क्षय के स्थान ! और हे जगत् के स्वामी जिनेन्द्र ! मुझे आपके चरणोमें नमस्कार करनेवाली बुद्धि प्रदान कोजिए ।। १३५ ।। हे जिनेन्द्र ! देवाङ्गनाओं के नेवरूपी कुवलयों ( चन्द्र-बिकासी कमलों) के विकसित करने के लिए बाप आनन्दप्रद चन्द्रमा हैं और न्द्रमा हैं और काम के मदरूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिए आप सर्य कहे गये हैं एवं कर्मरूप शत्रुओं को नष्ट करने के लिए आप कठोर हृदय हैं, किन्तु नत्रीभूत मानव के विषय में आप दयालु हैं । इस प्रकार विपरीत व्यापार वाले ( चन्द्र, सूर्य, निष्ठुरता व दयालुता-आदि दिजातीय व्यापार-युक्त ) हो करके भी आप महान हैं ॥ १३६ ॥ आप अनन्त गुणों की निधि ( खजाना ) हैं और मैं, परिमित बुद्धिरूपी ( मतिज्ञान व श्रुतज्ञान । सम्पत्ति का खजाना हूँ | आप द्वादशाङ्ग धुतरूपी समुद्र के पारदर्शी विद्वानों ( गणधरादि) द्वारा स्तुति किये गए हैं और मैं परिमित शब्दों वाला और सोमित छन्दों या सीमित आचरण से पुक्त हूँ। हे जिनेश ! आप में और मुझमें इतना स्पष्ट अन्तर होते हुए हम दोनों एक सरीखे कैसे हो सकते हैं ? इसलिए में और आप दोनों दो वस्तु हैं ।। १३७ ।। हे अनुपम ! जब तुम आप सरीखी वाणी के मार्ग ( गणघरादि ) द्वारा स्तवन करने के योग्य हो तो मुझ अज्ञानी के आपके गुण-समूह के स्थान न होनेवाले स्तवनों से आपकी स्तुति करना व्यर्थ है, परन्तु जब अपितु सर्वाणि वाञ्छिलवस्तुनि त्वं ददासि । २. किं न भवति?। ३. मोक्ष। ४. विध्यंसक । ५. सेवाहृदयमन्दिर ।। ६. कर्मक्षरस्थान ।। ७. बुद्धि दिश। ८. काममदमयो योऽसौ अन्धकारः । ९. कपितः। १०. रविः । ११. नने नरे । १२. विपरीत । १३. स्वपि । १४, मयि । १५. आवरण मयि । १६. वं, अहं च । १७. स्तोर्मादृशो बड़स्य । १८. भवत्सदृशवाणीमार्गयोग्ये । * त्वयि मयि गुणापाः'क०। १९, मौनवान कथं तिष्ठतु अयं मल्लपाणः तेन किचिजल्पितं, परन्तु मया स्तोत्रं कत्तुं न पार्यते ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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