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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये न व्रतमरिग्रहणं शाकपयो मूलभैक्षचर्या वा । व्रतमेतस तबियामङ्गीकृतवस्तुनिर्वहणम् ॥२१४ ॥ इत्यनुस्मृत्य विहिततवारापनोचितावारे समावलाभ्रभूनाम करेणुका माणायंपुरोहितसले भैरवोभवनं प्रति गन्तुमुद्यते च 'हंहो विवेकबृहस्पते, स्वभावत एव महासत्त्वमसते कण्ठतेष्वपि प्राणेषु किमनुमिते भाचरितेतात्मनः प्रियं कर्तुं युक्तम्' इति भतिकयेव प्रतिमतया वृहितमिङ्गितं व मतङ्गजगणिया, 'कथमयं विद्वानप्यहितोपदेशाद्दुःखमकराकरवलि भवादन्यवि निमकुमुद्यतः' इति कृपयेक कम्पितभवन्या, 'अये दुर्गासनावश विशामीश, कयमीवृग्विषरभिसंधरेष्यत्कल्मषनिषेकमा भवान्सहिष्पते' इति सूचयतेव धूमधूसरतामुपगत माशाषलयेन, 'अपि पन्चमीकल, लोकपाल, वनमजनितपुष्पवर्षेण दुरेनसोऽस्माद्वदासीस्वस्थ भवतः कथं भमा सोढव्या भविष्यन्ति चिताचित्रभानोः कलुषितानिमिषमुज्ञाः शिलालेखा:' इति शोकानलल्य ने वोह काश्यानाभिराम्बरितमम्बरेण 'अयि प्रविपन्नोत्पयकय पृथ्वीनाथ तेषु तेषुत्सवेषु संपा मिन्दुन्दुभिनादापुष्म । वनुवशर्मणः कर्मणस्त्वपि कपाशेवे सति कथं तु मया नाम कर्णकटुप्रभावत्ववान्धवहारावः श्रोतव्यों भविता' इति शोचनादिव प्रवृत्तवाष्पस्यन्दया दुदिनीभूतं दिवा 'त्वमेवमवश्यमहो राजन्, जानीहि । न खलु भवस्यमायतिषु हिताय क्रियोपायः । तदलमत्राग्रहेण । निवृत्य गम्यतां हृम्यंम्' इत्पाचरितकालियेन सुहृदेव प्रतिमा ९२ 'कानों में शङ्ख के कुण्डलों का धारण करना अथवा शाकमात्र का भक्षण व दुग्धपान, जलपान, कन्द भक्षण व भिक्षासमूह का भोजन व्रत नहीं है किन्तु स्वीकार किये हुए पदार्थ का निर्वाह करना हो उन्नत बुद्धिशाली महानुभावों का व्रत है | २१४ ॥ इसके पूर्व में, जिसने चण्डिका देवी की पूजा संबंधी योग्य क्रिया की है एवं जिसके समीपवर्ती आचार्य व पुरोहित हैं, जब चण्डिकादेवी के मन्दिर की ओर प्रस्थान करने उद्यत हुआ तब निम्नप्रकार अपशकुन हुए और दुसरे भी शकुनशास्त्र प्रसिद्ध अपशकुन हुए, जिनकी सङ्गति दुष्टस्वभाव वाले फलों को देनेवाली है । 'बुद्धि में वृहस्पति- सरीखे व स्वभाव से ही महान धर्मपरिणाम के निवासस्थान ऐसे अहो यशोधर महाराज । प्राणों के कण्ठगत होनेपर भी आपको अनुचित आचरण द्वारा अपनी आत्मा का प्रिय करना क्या उचित है ? अपि तु नहीं है' इसप्रकार की बुद्धि से ही मानों-- ऐरावण-पत्नी नाम की हथिनो ने उल्टी चिहारने की ध्वनि को व चेष्टा की 'यह यशोवर महाराज विद्वान होकर के भी पापो पदेश से, दुःखरूपी मकर समूह से व्याप्त हुए संसार समुद्र में डूबने के लिये किसप्रकार उद्यत हुआ ?" इसप्रकार की कृपा से ही मानो भूमि कम्पित हुई । 'अये दुर्वासना के अधीन राजन् ! इसप्रकार के मानसिक अभिप्राय से उत्पन्न हुए दुःखसन्ताय को, जिसमें भविष्य में समूहरूप से आनेवाला पापबंध वर्तमान है, आप कैसे सहन करोगे ?' इस प्रकार के अभिप्राय को सूचित करता हुआ ही मानों - दिशासमूह बुएँ से धूसरता की प्राप्त हुआ । भाग, 'हे मध्मलोकपाल यशोवर महाराज ! इस दुष्ट पाप से मरे हुए आपको चिताग्नि की ज्वालाओं के अग्र जो कि देवों के मुख मलिन करनेवाले हैं, आपके जम्मावसर पर पुष्पवृष्टि करनेवाले मुझसे कैसे सहन करने योग्य होंगे ? ऐसी पश्चातापरूपी अग्नि से व्याप्त हुआ ही मानो आकाश उल्फा ( बिजली ) ज्वालाओं से बाच्छादित हुआ । 'उन्मार्ग की वार्ता स्वीकार करनेवाले हे राजन् ! मुर्गे के वरूप पाप से, जिसमें उत्तरकाल में सुख नहीं है, तुम्हारे मरनेपर, मेरे द्वारा, जिसमें उन उन प्रसिद्ध उत्सव ( राज्याभिषेक आदि ) के अवसर पर आनन्द दुन्दुभिवाजों की ध्वनि उत्पन्न कराई गई है, आपके बन्धुवर्गों की कर्णशूल प्राय रोदनध्वनि कैसे करने योग्य होगी ? ऐसे शोक से ही मानी - अश्रुपतन उत्पन्न करनेवाला भूमि-समीपवर्ती आकाश मेघाच्छादित जलविन्दुओं से व्याप्त ) हुआ 1 धूलि -चिह्न वाली वायु सन्मुरन प्राप्त हुई, जो ऐसी मालूम पड़ती थी मानो - निम्नप्रकार सन्मान करनेवाला अभीष्ट मित्र ही है-
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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