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________________ सप्तम आश्वासः क्षयामयसमः कामः सर्वदोषोधयतिः । २उत्सूत्रे तत्र माना कुतः श्रेय:समागमः ॥१४५|| देहविणसंस्कारसमुपार्जनवृत्तयः । जितकामे या सर्वास्तरकामः सर्वदोषमा ॥१४६॥ स्वाध्यायध्यानधर्मायाः प्रियास्सावन्तरे कुतः । "इन् विन्धने पायथेष कामाक्षणिः ॥१४॥ “ऐवश्यंमतो मुकरवा भोगानाहारवजेत् । देहदाहोपशास्यर्थमभियान बिहानये ॥१४८ ॥ । 'परस्नोसंगमानलक्रीडान्योपयमप्रिया:10 1 'तोग्रता रतिकतव्ये' हम्पुरेतानि तवसम् ॥१४९।। मधं शूतमुपद्रव्यं ४ तौर्यत्रिक । मदो गित गारनि "माधानती गण: ॥१५॥ हिंसनं साहस द्रोहः १ पौरोभाग्याषणे ।। ईर्षावापदण्डपामध्ये कोपज:२१ स्याद्गणोऽषा ।।१५१।। सुखाभिलाषी मानवों की सुख-प्राप्ति के लिए की जाने वाली समस्त अनुलोम ( हित ) क्रियाएं फलदायक होती हैं, किन्तु अर्थ व काम को छोड़कर । अर्थात्-धन व काम की प्राप्ति के लिए किये जानेवाले कर्तव्य फलप्रद नहीं होते। क्योंकि घन चाहने वालों को धन प्राप्त नहीं होता और काम चाहनेवालों को कामसुख प्राप्त नहीं होता। अभिप्राय यह है कि धन चाहने वालों को प्रचुर धन मिल जाने पर भी तृप्ति नहीं होती और कामियों का काम-सुख प्राप्त हो जाने पर भी नप्ति नहीं होती ।। १४४ ॥ ___ काम, क्षयरोग-सरीखा है। यह वैसा समस्त दोषों ( पापों) का जनक है जैसे क्षयरोग समस्त दोषों ( बात, पिस व कफ को विकृतियों ) का जनक होता है, इसलिए उसकी अधिकता में प्रवृत्त हुए मानवों के लिए कल्याण की प्राप्ति कैसे हो गकती है ? ॥१४५।। काम पर विजयश्री प्राप्त करनेवाले जितेन्द्रिय मानव के, शरीर का संस्कार करना और बन कमाना-आदि सभी व्यापार व्यर्थ हैं; क्योंकि काम ही समस्त दोषों का जनक है ।। १४६ 1। जब तक कामी पुरुप के चित्त रूपी ईधन में यह कामरूपी अग्नि प्रज्वलित रहती है तब तक उसमें स्वाध्याय, धर्मध्यान व धर्माचरण-आदि क्रियाएँ किस प्रकार उत्पन्न हो सकती हैं ? ।। १४७ ।। अतः काम ( रतिविलास ) को अधिकता छोड़कर शारीरिक मन्ताप को शान्ति के लिए व आतंध्यान को नष्ट करने के लिए आहार को तरह भोगों का सेवन करना चाहिए ।। १४८ । व्यभिचारिणी स्त्री के यहाँ आना जाना काम-सेवन १. क्षयरोग । २. आधिक्ये । ३. देहस्य संस्कारवृत्तिः द्रविणस्योपार्जनवृत्तिः । ४. कन्दपों दोपवान् । ५. ज्वलति । ६. कामाग्निः । ७. आधिक्यं । ८. मातघ्पान । १. इल्परिका। १०, पवित्राहकरणं । ११. विपुलतृपा ! १२, बिटत्वं । १३, ब्रह्मचर्य । *. 'परबिवाहकरणेबरिकापरिगृहीतापरिगृहीलागमनानाङ्गब्रीडाकामतीमाभिनिवेशाः ।। २८11 --मोमागास अ०७। 'अन्यविवाहाकरणानङ्गकोडजिटत्यविपुलतषाः । इत्थरिकागमनं चास्मरस्य पञ्च व्यतीवाराः ।।६०|| -लकरण था । १४, यन्त्रलिङ्गलेपाविप्रयोगः । १५. एवमेव विहरणं । *. 'मृगयाओ दिवास्यप्नः परिबादः स्निगो मद. । तीयंत्रिकं वृथाटया च कामजो दशको गणः ।। ४७ ॥'-गनुस्मृति अ०७ । १६. परपरिग्रहाभिगमः कन्यादूध वा साहसा। १७. 'पोरे भाग्यार्थ वूपर्ण' इति गला । तत्र टिप्पणी-'नगरसंबंधिनी द्वे, परनिन्दा भाग्यदूषणं ।' पक्षिकाकारस्तु पौरोभाग्यममयकत्वमित्याह । टि० ग, दि. च इत्यत्रापि असूयफश्वमित्युल्लेखः। १८. अलिब्ययोऽपात्रव्ययश्चार्यदूपणम् ।१९. जातिवयोवृत्तविद्यादोषागागनुचितं वचो बापामध्यग् । २०. वधः परिक्लेशोऽर्थहरणमन्त्रमण दण्डपारुष्वम् । हमारे द्वारा अनूदित 'नीतिवाक्यामृत' व्यसनसगुहेश पु. २४३-२४४ से संकलित-सम्पादक। २१. 'पशुन्यं साहस द्रोहः ईयासूयाऽभदूषणम् । वाग्दण्ड प पारुष्य पायजापि गगी टकः ॥ ४८11---मनुस्मृति ०७
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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