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________________ ३५६ पशस्तिलकचम्पूकाव्ये ऐश्वर्या रायशोग्डी यधैर्यसौन्वर्यवीयंताः । सभेताळू तसंबाराश्चतुर्थवतपूतधीः ।।१५२।। अनजामलसंली परस्त्रीरतिचेतति । समस्का विपको हात परत्र च दुरापवाः ॥१५३|| अयतामत्राब्रह्मफलस्योपाख्यानम्-काशिवेशेषु सुरसुन्दरीसपमपौराङ्गमाजन विनोवारविवसरस्पा वाराणस्पा संपावितसमस्तारातिसंतानप्रकर्षकर्षगो धर्मर्षणो नाम नृपतिः । अस्यातिचिरप्रहप्रौढप्रणयसहकारमजरो सुमञ्जरी नामापमहादेवो । पञ्चतन्त्राविषास्त्रविस्तृतवचन उग्रसेनो नाम सचिवः । पतिहितकमनोमुता सुभता नामात्य परनी। दुविलासरसरङ्गः कडारपिङ्गो नामानयोः सूनुः । अनवविद्योपवेशप्रकाशिताशेषशिष्यः पुष्यो नाम पुरोहितः। सोमप्यातिशयापहसितपया' पना नामास्य धर्मपत्नी । समस्ताभिमात जनवाह्यत्यवहारानुरागः स के अनों से भिन्न अङ्गों में कामक्रीड़ा करना, दूसरों का विवाह करना, काम-भोग को तीन लालसा रखना और विटत्व ये कार्य ब्रह्मचर्यदत्त के घातक हैं । अर्थात्-ब्रह्मचर्याणुव्रत के उक्त पांच अतिचार हैं ।। १४९ ॥ मद्य-पान, जुआ खेलना, उपद्रव्य (टि के अभिप्राय से मांस-भक्षण व मघु-सेवन और पञ्जिकाकार के अभिप्राय से जननेन्द्रिय पर लेप-आदि का प्रयोग ), गीत-सुनने में आसक्ति, नृत्य देखने में आमक्ति, वाजों के सनने में आसक्ति, भड़कीलो वेष-भूषा, मद, विटत्व ( लुच्चापन ) एवं व्यर्थ भ्रमग ये दश काम के गण ( अनुचर हैं। १५० ॥ दूसरों की हिंसा करना, माहस (परस्त्री-सेवन व कन्याओं को दुषित करना), मियादि के साथ द्रोह करना, पौरोभाग्य ( दूसरों की चुगली करना), अर्थ-दूषण ( आमदनी से अधिक धन खर्च करना और अपात्रों के लिए धन देना), ईर्षा, वाक् पारुष्य ( कठोर वचन बोलना, अर्थात्-कुलीन को नोच कुल का कहना, वयोवृद्ध को वालक, सदाचारी को दुराचारी, विद्वान् को मूर्ख कहना और निर्दोषी को सदोषो कहनाआदि कठोर वचन ) और दण्डपारुष्य ( अन्याय से किसी का बध करना, जेल खाने को सजा देना और उसका समस्त धन अपहरण कर लेना या उसको जोविका नष्ट करना ) ये आठ क्रोध के अनुचर हैं ॥१५॥ ब्रह्मचर्य से पवित्र बुद्धिवाला मानव आश्चर्यजनक वैभव, उदारता, दानवीरता व विशेष पराक्रम, घोरता, मनोज्ञता, विशिष्ट शक्ति और आश्चर्यजनक संचार ( आकाश में गमन करता-आदि ) इन प्रशस्त गुणों को प्राप्त करता है ।। १५२ ।। जो मानव कामरूपी अग्नि से संस्पृष्ट है और जिसका चित्त परस्त्री के साथ रतिविलास करने में संलग्न है, उसे इस लोक में तत्काल विपत्तियां (लिङ्ग-च्छेद-आदि ) उठानी पड़ती हैं और परलोक में भी नरक-आदि दुष्ट स्थान वाली भयानक विपत्तियाँ भोगनी पड़ती है ।। १५३ ।। अब दुराचार के कटु फल की समर्थक कथा सुनिए १६. दुराचारी कडारपिङ्ग को कथा कापी देश की वाराणसो नगरी में, जो कि देव-सुन्दरियों से स्पर्धा करने वाली नागरिक कामिनीजनों को कोड़ा रूपी कमलों के लिए सरसी ( तहाग ) है, समस्त शत्रु-समूह को उन्नति को क्षीण करने वाला दुर्मर्पण नाभका राजा था। इसको चिरकाल से उत्पन्न हुए गाढ़ प्रेम रूपी आम्रवृक्ष को मञ्जरो-जैसी सुमजरो नामकी पट्टरानी थी और दर्शनशास्त्र व व्याकरण-आदि शास्त्रों के अध्ययन से विस्तृत वचन वाला उपमेन नामका मन्त्री था। उसकी पति के कल्याण में अनोखे मनो व्यापार वालो सुभद्रा नामकी प्रिया थी । इनके निन्द्य काम कीडारूपी रस के अभिनय करने के लिए रङ्गमञ्च-सरोखा फडारपिङ्ग नामका पुत्र था। उक्त १. त्यागविक्रमाम्यां वाण्डिीरः। २. बिनोद एवं कमल । ३. तर्कश्याकरणादि । ४. तिरस्कृतलक्ष्मी। ५. अभिजातस्तु कुलजे वृधै सुकुमार न्याव्ये च । *.
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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