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________________ सप्तम बाश्वास: षिङ्गवंश" कडार पिङ्गः स्वापतेयतारुण्य मदमन्दमान' बलाच्यापला हुरालापन भन्दैन सह नतः भ्रूविभ्रमाम्यमानभुजङ्गा तिथिषु पुरवीथिषु संचरमाण स्तामेकवा प्रासादत लोपसामरा 'मेणाक्षिप्तपद्म पद्मामवलोक्य एषेदिमसमुहलानाम्बुवृष्टिरेषा मनोमृग विनोदविहारभूमिः । एषा स्मरद्विरदवस्वनवारिवृत्तिः किं खेचरी किममरो किमियं रतिर्वा || १५४।। ' ३५७ इति च विचिन्त्य मकरकेतुधाव्यापारनिधिः प्रवृत्ततुरभिसंधिः "पुरुषप्रयोगेणाभिमतकार्यघटना सिद्धिमनव बुध्यमानः पराशपलविवारणत डिल्लतामिव तडिल्लतां नाम पात्र अवडीनं १० शरणं ॥ सुनपातनपतनादिभिः " पादपतनादिभिः श्रयं रसदाशयाश्रमं वयसाध्यमुपरुध्य स्वकीया " कूल कान्तारघनघरित्रोमकरोत् । प्रतिभास: १६ तदुपधा तथाविधविधिविधात्री १" धात्री --- स्वगतम् । ) परपरिग्रहो "अन्यतरानुरागप्रश्चेति दुर्घटखलु कार्योपन्यास: २० | अथवा सुघट एवायं कार्य घटः । यतस्तप्तातप्त वयसोरयतोरिव चेतसोः सांगत्याय शल राजा का निर्दोष विद्याओं के उपदेश से समस्त शिष्यों को प्रकाशित करने वाला पुण्य नामका पुरोहित था । इसको अपने रूप लावण्य की विशेषता से लक्ष्मी को तिरस्कृत करने वाली पद्मा नाम को प्रिया थी । एक समय समस्त कुलीन जनों से विपरीत आचार में अनुरक्त हुआ कडारपिङ्ग धन व जवानी के मद से प्रचुर शक्तिशाली चपलता के कारण अश्लील वचन बोलने वाले विट्-समूह के साथ ऐसी नगर को गलियों में घूम रहा था, जहांपरी काम के लिये आप लोकर कामोजन आतिथ्य ग्रहण करते थे, एक समय वह महल के तल पर बैठी हुई एवं अपने मुन्दर पलकों वाले नेत्रों से लक्ष्मी को तिरस्कृत करने वाली पद्मा को देखकर सोचने लगा- इन्द्रियरूप वृक्ष को विकसित करने के लिए विहार भूमि-सी एवं कामरूपी हाथी की अधिने के लिए देवी है ? अथवा क्या रति है ? ।। १५४ ॥ * जलवृष्टि सरीखी, मनरूपी मृग की नौड़ा के लिए बंधनरज्जु-सी यह कौन है ? क्या विद्याधरी है ? क्या इसके पश्चात् काम के अधीन कर्तव्य निधिवाले उसने दुष्ट अभिप्राय उत्पन्न किया। बलात्कार से अपनो मनोरथ सिद्धि न जानकर उसने दूसरों के अभिप्रायरूपी पर्वत के विदारण के लिए बिजली-सरीखी तडिल्लता नाम की धाय को उसके पास भेजने का विचार किया। उसने उस काय को तीसरे मनुष्य आदि के लिये अगोचर ( एकान्त ) गृह में ऐसे विनयों द्वारा सफलता पूर्वक रोककर जो कि नैतिक स्थान की प्राप्ति को नष्ट करनेवाले थे, और जिनमें पैरों पर गिरता बादि वर्तमान थे एवं जो दुर्जनों द्वारा आश्रय किए जानेवाले थे, उसे अपने अभिप्राय की वृद्धिगत वन भूमिप्राय कर दी 1 उसके आग्रह से उसी प्रकार के कर्तव्य को करनेवाली चाय ने अपने मन में विचार किया - निस्सन्देह परस्त्री व उसके प्रति प्रेमी का प्रेम-कथन इस कार्य को वार्ता का प्रारम्भ दुःख से भी करने के लिए १. प्रचुरीभवत् । २. विटसमूहेन ।। ६. कामिजन । ४. उदः सकर्मकश्वर इत्यधिकारे 'समस्तृतीयायुनेः' इत्यात्मनेपदं । ५. 'बर्फ अराळं कुटिलं मिस इति ट० ख० । गञ्जिकाकारस्तु 'अरालं नाग' इत्यची कमत् । ६. श्रियं । ७. पद्मा ★ रूपकपरिपुष्टः सन्देहालंकारः । ८ बलात्कारेण । * चित्त । ९. विद्युतं । १० अपलो मस्तृतीयाद्यगोचरः दि० ख० 'चतुलनने' टि० ० ० या यश पं० । १२. सुनमायतनस्य पलनं गमनं वदन्ति विनाशयन्ति इत्येवं नीलानि तैः २ १३. विनयैः । १४. 'सफल' ० तु क्रियाविशेषणमिदं । १५, अभिप्रायवनभूमिप्रायां । १६. तस्याग्रहात् । १७. कीं । १९. प्रत्ययः विश्वासः । २० उपन्यासस्तु वाङ्मुखं । १८ ११. गृहे । ० ० ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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