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________________ अष्टम आश्वास ૪૦o पिsस्थ ध्यान में विवेकी व संयमो धार्मिक पुरुष को पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तत्त्वरूपवती इन पाँच धारणाओं — ध्येयतस्त्रों का ध्यान, दुःखों को निवृत्ति के लिए करना चाहिए। पार्थिवी धारणा में मध्यलोकगत स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त तिर्यग्लोक के बराबर, निःशब्द, तरङ्गों से रहित और बर्फ सरीखा शुभ्र ऐसे क्षोर समुद्र का ध्यान करे। उसके मध्य में सुन्दर रचना-युक्त, अमित दीप्ति से सुशोभित, पिघले हुए सुवर्ण के समान प्रभा-युक्त, हजार पत्तोंवाला, जम्बूद्वीप के बराबर और मनरूपी भ्रमर को प्रमुदित करनेवाला ऐसे कमल का चितवन करे । तत्पश्चात् उस कमल के मध्य में सुमेरुपर्वत के समान पीतरंग की कान्ति से व्याप्त ऐसो कणिका का ध्यान करें । पुनः उसम शरत्कालीन चन्द्र-सरीखा शुभ्र और ऊंचे सिंहासन का चिन्तवन करके उसमें आत्मद्रव्य को सुखपूर्वक विराजमान, शान्त और क्षोभरहित, राग, द्वेष व मोह आदि समस्त पाप कलङ्क को क्षय करने में समर्थ और संसार-जनित ज्ञानावरण आदि कर्म-समूह को नष्ट करने में प्रयत्नशील चिन्तन करे । इति पार्थिवी धारणा ! आग्नेयो धारणा में निश्चल अभ्यास से नाभिमंडल में सोलह उन्नत पत्तोंवाले एक मनोहर कमल का और उसकी कणिका में महामन्त्र ( हैं ) का, तथा उक्त सोलह पत्तों पर अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं और अ: इन सोलह अक्षरों का ध्यान करे । पश्चात् हृदय में आठ पांखुड़ीवाले एक ऐसे कमल का ध्यान करें, जो अधोमुख ( गधा ) हो ओर जिसपर ज्ञानावरण- आदि आठ कर्म स्थित हों । पश्चात् पूर्वचिन्तित नाभिस्थ कमल को कणिका के महामन्त्र की रेफ से मन्द मन्द निकलती हुई घूम को शिखा का, और उससे निकलती हुई प्रवाहरूप स्फुलिङ्गों की पंक्ति का, पश्चात् उससे निकलती हुई ज्वाला की लपटों का चिन्तवन करे। इसके बाद उस ज्वाला (अग्नि) के समूह से अपने हृदयस्थ कमल और उसमें स्थित कर्म-समूह को जलाता हुआ चिन्तवन करे। इस प्रकार आठ कर्म जल जाते हैं, यह ध्यान को ही सामथ्र्य है । पश्चात् शरीर के वाह्य ऐसी त्रिकोण वह्नि (अग्नि) का विस्तवन करे, जो कि ज्वालाओं के समूह से प्रज्वलित बड़वाल के समान, अग्नि बीजाक्षर 'र' से व्याप्त व अन्त में साथिया के चिन्ह से चिन्हित क मण्डल से उत्पन्न, घूम-रहित और सुवर्ण- सरीखी कान्तियुक्त हो । इस प्रकार धगधगायमान फैलती हुई लपटों के समूह से देदीप्यमान बाहर का अग्निपुर, अन्तरङ्ग को मन्त्राग्नि को दग्ध करता है । तत्पश्चात् यह अग्निमंडल उस नाभिस्थ कमल आदि को भस्मीभूत करके दाह्य जलाने योग्य पदार्थ का अभाव होने के कारण स्वयं शान्त हो जाता है । इति आग्नेयो धारणा मारुती धारणा में ध्यानी संयमी मनुष्य को आकाश में पूर्ण होकर संचार करनेवाले, महावेगशाली, महाशक्तिशाली, देवों की सेना को चलायमान करनेवाला और सुमेरुपर्वत को कम्पिल करनेवाला, मेघों के समूह को बखेरनेवाला, समुद्र को क्षुत्र करनेवाला, दशों दिशाओं में संचार करनेवाला, लोक के मध्य में संचार करता हुआ और संसार में व्याप्त ऐसे वायु मंडल का चिन्तवन करे । तत्पश्चात् उस वायुमंडल द्वारा कर्मों दग्ध होने से उत्पन्न हुई भस्म को उड़ाता हुआ ध्यान करे। पुनः उस वायु मंडल को स्थिर चित्तवन कर उसे शान्त करे । इति मारुती धारणा । वारुणी धारणा में ध्यानी मानव, ऐसे आकाशतत्व का चिन्तवन करे, जो कि इन्द्रधनुष और बिजली ५१.
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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