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________________ ४०२ यशस्तिलकचम्पूकाव्य पुण्योपार्जनशरणं पुराणपुवर्ष लबोधितावर पाम् । पुरुहतधिहिलसेवं पुरदेवं पूजयामि तोयेन ॥१३॥ मन्दमवमधनवमनं मन्दरगिरिशिखरमज्जनावसरं । कब मुमालतिकायापचन्दनर्वाचितं जिनं कुर्षे ॥१४॥ अवमतव्यहनबहनं निकामसुल संभवामृतस्मानम् । आगमबीपालोक कलमभवस्तन्दुलर्भजामि जिनम् ॥१५॥ स्मरसविमुस्तक्ति विज्ञानसमुद्र मुखिताशेषम् । श्रीमानसकलहंस कुसुमधारैरर्चयामि जिननायम् ।।१६।। को पर्जना-आदि चमत्कारवाले मेघों के समूह से व्याप्त हो । इसके बाद अर्धचन्द्राकार, मनोज्ञ और अमृसमय जल के प्रवाह से आकाश को बहाते हुए वरुणमंडल ( जलतत्त्व) का ध्यान करके उसके द्वारा उक्त कर्मों के क्षय से उत्पन्न होनेवाली भस्म का प्रक्षालन करता हुआ चिन्तवन करे। इति बारुणो धारणा । तस्वरूपवती धारणा में संयमी व ध्यानी पुरुष सप्तधातु-रहित, पूर्णचन्द्र के सदश कान्ति-युक्त और सर्वज्ञ के समान अपनो विशुद्ध आत्मा का ध्यान करें। इति सत्त्वरूपवती धारणा। इस प्रकार अभी तक पिंडस्थ ध्यान का संक्षिप्त विवेचन किया गया है, अन्य पदस्थ-आदि का स्वरूप ज्ञानार्णव शास्त्र से जान लेना चाहिए। विस्तार के भय से हम यहाँ उसका संकलन नहीं करते। प्राकरणिक अभिप्राय यह है कि प्रस्तुत पद्य में आचार्यश्री ने आग्नेयो व तत्त्वरणपती बारणा का वाचन मामा पुनर का निरूपण किया है * ॥१२॥ मैं ऐसे प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ भगवान् को जल से पूजा करता है, जो कि पुण्योपार्जन के मूह हैं, जो पुराण पुरुष हैं, जिनका चारित्र स्तुति के योग्य हैं और जिनकी पूजा इन्द्रों द्वारा की गई है ।। ९३ ॥ जो प्रचुर दपंवालं काम का दमन करनेवाले हैं, जिनको सुमेरुपर्वत को शिखर पर अभिषेक का अवसर प्राप्त हुआ है और जो कीर्तिरूपी लता की जड़ हैं, उन जिनेन्द्रदेव को हम चन्दन के लेप से पूजित करते हैं ।। ९४ ॥ मैं ऐसे जिनेन्द्र को धान्य-तण्डुलों ( अक्षतों) से पूजा करता हूँ, जो दोष ( राग-आदि ) रूपों वृक्षों के वन को भस्म करने के लिए अग्नि-सरीम्से हैं, जो अनंतसुख को उत्पत्ति के लिए मोक्ष-सदृश हैं और जिनमें आगम ( द्वादशाङ्ग श्रुत ) रूपी दीपक का प्रकाश वर्तमान है ।। १५ ।। जिनकी सुत्तियाँ ( वचन ) राग से रहित हैं, जिन्होंने ( केवलज्ञान ) रूपी समुद्र द्वारा समस्त लोक को वेष्टित किया है और जो लक्ष्मीरूपी मानसरोवर के राजहंस हैं, उन जिनेन्द्र प्रभु को पुष्पों से पूजा करता हूँ ।। ९६ ।। मैं ऐमे अहंन्त भगवान् को नवेद्य से पूजा करता है, जिनको नीतियाँ-नय-अनन्त हैं, अर्थात् जो १. गृहम् । २. पृष्हूतः दाक्रः । ३. आदिदेवं । ४. प्रचुरवपसहितकाम । ५ कीर्ति । ६. दोपः । ७, संभवाय मोक्षसदा । ८. रागाद्विमुक्ता सूक्तिर्वचनं यस्य सः तं। १. वेष्टित । *. प्रस्तुत लेखमाला 'नीतिबाक्यामृत' ( हमारी भाषा-टीका ) आन्वीक्षिकीसमुद्देश पृ० १.१, १०२ से संकलन की गई है-सम्पादक
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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