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________________ अधम आश्वासः ४०३ महन्तममिसनीति निरञ्जनं मिहिरमाधियावानेः । आराधयामि हषिमा मुक्तिबोरमितमामसमजनम् ।।९७।। भक्त्या नतामराशपकमलवनारालतिमिरमातवटम् । जिनमुपधरामि चोपः सकलसुनाराम कामवमकामम् ।।१८।। अनुपमकेवलवपुष "सकलकलाविलयतिरूपस्पम् । योगावगम्पमिलयं यजामहे "निखिलगं जिनं धूपः ॥१९।। स्वर्गापवर्गसंगतिविधायिनं व्यस्तजाप्तिमृतिदोषम् । योमचरामरपतिभिः स्मृतं फलजिनपतिमुपासे ॥१००। अम्भश्चन्चनतन्दुलोद्ग महविपः सधूपः फलरचिस्या विजगद्गुरु शिनपति सानोत्सवानन्तरम् । तं तौमि प्रजपामि देतसि वषे फुर्व अतारापन लोक्यप्रभवं च तन्महमहं कालत्रये श्रद्दधे ॥१०१॥ 'यजर्मुवाव' यभाग्निरूपास्य देवं पुष्पाञ्जलिप्रफरपूरितपावोठम् । श्वेतारापत्रथमरीचवर्पणार्थ राराधयामि पुनरेनमिनं जिमानाम् ॥१०२॥ ( इति पूजा) अनन्त नयों के स्वरूप के प्रतिपादक हैं, जो निरञ्जन ( राग, द्वेष व मोहरूपी अञ्जन से रहित-वीतरागविशुद्ध ) हैं, जो मानसिक व्याधिरूपी दाबानल अग्नि को बुझाने के लिए मेघ-सरीखे हैं, जिनका मन मुक्तिरूपी लक्ष्मी के साथ अनुरक्त है और जो कामदेव-सरीखे मनोज्ञ हैं ।। ९७ ॥ में ऐमे जिनेन्द्रदेव की दीपों से पूजा करता है, जो कि भक्ति से नमीभूत हुए देवों के चित्तरूपी कमल-वन का विषमान्धकार ( निविड़ अज्ञानान्धकार व पक्षान्तर में विकसित न होना) नष्ट करने के लिए सूर्य-सरीखे हैं, जो समस्त सुखों के लिए उद्यान रूप हए अभिलषित वस्तू देनेवाले हैं एवं जो काम-वासना से रहित हैं ॥ ९८ ।। हम ऐसे जिनेन्द्रदेव को धूप से पूजा करते हैं, जिनका अनोखा केवलज्ञान और अनोखा परमीदारिक पारोर है, समस्त भावकर्मों (रागादि) के नष्ट हो जाने पर जो रूप रहता है, उसी काप ( केवलशान स्वरूप ) में जो स्थित हैं और जिनका स्थान ( मोक्ष ) ध्यान के द्वारा जानने योग्य है एवं जो केवलज्ञान की अपेक्षा समस्त पदार्थों में व्यापक है ।। ९९ ।। मैं ऐसे जिनेन्द्र को फलों से उपासना ( पूजा ) करता है, जो कि स्वर्गश्री व मुक्तिश्री के साथ संगम करानेवाले हैं, जिन्होंने जन्म व मरणरूपी दोष नष्ट कर दिये हैं और जो विद्याधरों के स्वामियों व देवेन्द्रों द्वारा स्मरण किये गये हैं ॥१००।1 अभिषेक-समारोह के पश्चात् तीन लोक के गुरु श्रीजिनेन्द्र को जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दोप, घूप व फलों से पूजा करके मैं उनकी स्तुति करता हूँ, उनका नाम जपता है, उन्हें अपने चित में स्थापित करता हूँ एवं द्वादशाङ्ग श्रुत को आराधना करता हूँ तथा तीन लोक में उत्पन्न होने वाले उस यज्ञोत्सव की तीनों कालों में अनुमोदना करता हूं, अर्थात्-जहाँ कहीं यज्ञ ( पूजा होता है, उसको में अनुमोदना करता हूँ।। १०१ ॥ यज्ञान्त स्नान किया हुआ मैं जिनका पादपीठ ( चरणों के पास का स्थान ), पुष्पाञ्जलि-समूह से भरा हुआ है, उन जिनेन्द्रदेव की पूजा द्वारा हर्षपूर्वक उपासना करके पुनः मैं उनकी श्वेत छत्र, कमर व दर्पण-आदि माङ्गलिक द्रव्यों से आराधना करता हूँ ।। १०२॥ [ इस प्रकार पूजा समाप्त हुई, आगे पुजा का फल बतलाते हैं १. मेधं। २. विपगावकार। ३. वातिप्रदं। ४. कलाः भावकागि तामां विलये विनाशे सति, सकलकलाविलये वर्तते यदा जसलामाविकपकांत तिष्ठतोति तत्स्थं केवलज्ञानसम्पमित्यर्थः। ५. सर्व केवलज्ञानापेक्षया सर्वव्यापकं । ६. गुप्प । ७. त्रैलोक्ये प्रभवः उत्तनिर्यस्य महस्य स नं। ८. पत्र कुत्रापि यशो वर्तते लमनुमानयामि । ९. पूजाभिः। १०. यशान्तस्नानं ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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