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________________ षष्ठमाश्वासः माभितमवगत्योपात्तमासोपवासियेषः कियामात्रानु मिनिसिलकरगोन्मेषो गोधराप तदालमं प्रविष्टस्तया स्वपमेव पथाविधिप्रतिपन्नचेष्टस्तथापि विधावलावनलनाशवममादिविकारप्रयलात्कृतानेकमानसोद्वेजनयात्यो रेवत्याः मणिनि मनोमूलमाया, 'मन', विचरजिनालंकारसम्यमत्वरत्नाकरक्षोणि दक्षिणमथुरायां प्रसिधावसमः सकलगुणमणिनिर्माणविटू"रावनिः श्रीमुनिगुप्तमुनिर्मवपितरचनै धनः परिमषिताशेषकल्मषस वनरखिसकल्याणपरम्पराविरोचनर्भवतों रेवतीमभिनन्दयति 1 रेवती भक्तिरसवशोलसल्लपनरागाभिरामं ससंभ्रमं च सप्तप्रचारोपसर्वर पवस्ता विशमाधिरय श्रुत विधानेन विहितप्रणामा प्रमोदमानमनःपरिणामा तदपितान्यावीवंचमान्यापादिता। जति बार इलोक:-- ___कावर मनताश्यगोसिंहपीठाधिपत्तिषु स्वयम् । मागतेष्वष्यभूनिषा रेवती भूततापसी ॥१८६।। रहित बुद्धिवाली वह धर्मकर्म-समूह की प्रवृत्तिवाले अपने स्थान में ही सुखपूर्वक बैठो रही । अर्थात्-समवसारण में नहीं गई। इसके बाद अनेक कूटकपट करने की बुद्धिवाले उस क्षुल्लक ने जब अनेक स्वभाव वाले ब्रह्मा-आदि के अनेक वेषों से रेवती रानो के मन को निश्चल जान लिया तब वह एक मास का उपवास करने वाले ऐसे साधु का वेष बनाकर, जिसकी शिथिल इन्द्रियों का व्यापार क्रिया मात्र द्वारा अनुमान किया गया है, अर्थात्'यदि यह ऐशा क्रियावान् है ? तो इसका इन्द्रिय-व्यापार कैसे घटित होता है ?' इस प्रकार जो सबके द्वारा जाना गया है, आहार के लिए रेवती रानी के गृह पर आया। रेवती रानी ने स्वयं ही प्रतिग्रह-आदि नव विधि के अनुसार उसका सन्मान किया किन्तु उस खुल्लक ने अपने ऐसे विद्यावल से, जो कि जठराग्नि के नाश से उत्पन्न हुए वमन-आदि विकारों से प्रबल हैं, जब रेवलो रानी के मन को उद्विग्न करनेवाली अनेक धूर्तताएँ को फिर भी जब उसने प्रस्तुत सनी की मानसिक मूढ़ता नहीं देखा तब उसने कहा 'हे माता ! तुम समस्त विद्याबरों के चित्त का आभूषण सम्यग्दर्शनरूपी रत्न की खानि हो। दक्षिण मथुरा नाम को नगरी में प्रसिद्ध निवास करनेवाले और समस्त गुणरूपी मणियों की रचना के लिए निकटवर्ती पृथिवी-सरीखे श्री मुनिगुप्त नाम के मुनिराज समस्त पाप-संबंध नष्ट करनेवाले व समस्त कल्याण-परम्परा से सुशोभित एवं मेरे लिए समर्पण किये हुए संबंधवाले अपने आशीर्वादरूपी वचनों से आपका अभिनन्दन करते हैं।' उक्त सन्देश सुनकर रेवती रानी ने भक्तिरस के वश से विकसित हई मुख को कान्ति से मनोज्ञतापूर्वक च सादर गमन करनेवाले पैरों से सात पैर भूमि चलकर दक्षिण दिशा में आश्रित होफर शास्त्र विधिपूर्वक श्री मुनिगुप्त मुनिराज के लिए नमस्कार किया और प्रमुदित हुए चित्तवाली उसने उक्त मुनिराज द्वारा भेजे हुए आशीर्वाद के वचन ग्रहण किए या स्वीकार किए। इस विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ इस प्रकार है-- जब हंसबाहन (वहा), गरुड़वाहन (विष्णु), गोवाहन । शिव ) व सिंहासन के अधिपति ( तीर्थङ्कर) स्वयं प्राप्त हुए, अर्थात्-जव उक विद्याधर क्षुल्लक ने विद्या-चल से उक्त ब्रह्मा-आदि का रूप धारण किया तो भी रेवती रानी मूढ़ताबाली ( मिथ्यामागं की प्रशंसा करनेवाली ) नहीं हुई ।। १८६ ।। १. अनुगातः चेदीदृगोऽयं क्रियावान् वर्तते तर्हि अस्पेन्द्रियग्यापारः कथं घटते इति सर्वेरनुज्ञातः । २. आहाराम । ३. घूतत्वं । ४. स देवविद्याधरः-हे मावः । ५. निकट । ६. संबंधः । ७. संबंधै । ८.शोभमानः । ९. गमनप्राप्तः पदैः सप्तभिः प्रचाररूपसद्य । १०. 'श्रुतविश्रुतेन विधानेन' इति प० । ११. हंसः । १२. गरड़ः । १३. नाभूतु ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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