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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये तवयमपर एवं कश्चिनरेन्द्र विद्याविनोबाविषहृदयमव कप वीति व प्रपद्य निःसंदिग्धबोधा समासिष्ट । पुनः स्वापतेथे ' दिशि विश्वंभरातलातुम्, अयोमुखासनवशसा वकृष्टस् एकेभ्वनीलशिलाचलाधिष्ठानीस्कृष्टम्, अनिल गतिमर्तो सरणमार्गेरिव सोपान चतुविशमुपाहितावतारम्, अन "णमणिश्लाघ्यो नाकारा तालविरचित स्पष्टाष्टविधवसुंधरम् अनवधिनिर्माणमाणिक्यसूत्रित मेखला लंकारकण्ठीरव पीठमतिष्कारमेष्ठिप्रतिममशेषतः समासीनष्ठुावशसभान्तरालबिया लिलि म्यानकाशो कानोकप्रमुखप्रातिहार्यपिशोभितम् ईषदुत्मि" " पदनिमिवोद्यानप्रसूनोपहारहरिचन्दनःभोवत नायगरा फुटीसमेतम्, अनेकमानस्तम्भ डाग १ "तोरणस्तूपध्वज धूप निर्वातिषान निर्भरमुरगणानिभिनायकानीफानीत महामहोत्सवप्र सरम् अभितो भवसेन प्रत्याहंताभासप्रभावितयात्राधिकरणं समवशरणं विस्तार्य म विद्याधरः समस्तमपि नगरं क्षोभयामास । सापि जिन्नसममोपदेशर से रातो रेवतीमं वृत्तान्तोपक्रमं कुतोऽपि जैनाभासप्रतिमा तोयबुध्य 'सिद्धान्ते खलु लुषिशतिरेव तीराः ते चाधुना सिद्धि वधूसौषमध्यविहाराः तवेषोऽपर एवं कोऽपि मायाचारी तद्रूपबारी' इति श्रवधार्याविपर्यस्तमतिः १९ पर्यात्मामन्येव प्रवर्तितधर्म कर्म व फ्रे सुखेनासांचक्रे । पुनर्ख हुकूट कपटम तिर्वेश तिस्ताभिविविधप्रकृतिभिराकृतिभिस्तदा स्वनितइसके बाद उस विद्याधर क्षुल्लक उत्तर दिशा में ऐसा जिनेन्द्रदेव का समवशरण रचकर समस्त नगर को क्षुत्र किया। जो कि पृथिवी तल से पांच हजार धनुष प्रमाण ऊँचा था । जो अखण्ड इन्द्रनीलमणि की शिला में निर्मित हुए गोलाकार आधार से उत्तम था। जो चतुर्गति रूपी गड्ढे से निकालने वाले मार्गसरोखों बोस हजार सीढ़ियों की रचना से चारों दिशाओं में ग्रहण किये हुए अवतार वाला था। जिसमें बहूमूल्य वर्माणियों के प्रशस्त व उन्नत नो प्राकारों ( फोटों-धूली साल, सुवर्णसाल, रूप्यसाल, स्फटिकसाल, ने मध्य कुमाल बस व कल्पवृक्षन्वन को चार-भूमियों के चार साल इस प्रकार तो साल- प्राकार) में बनी हुई स्पष्ट आठ भूमियाँ वर्तमान थीं। जिसमें बेमर्याद रचनावाले माणिक्यों से बनी हुई तीन कटिनियों से सुशोभित सिंहासन पर परमेष्ठी की प्रतिमा विराजमान थी । जो चारों ओर बैठी हुई बारह सभाओं के मध्य शोभायमान होनेवाले देव-दुन्दुभि व अशोक वृक्ष आदि बाठ प्रातिहार्यो से सुशोभित था । जो अधखिली नन्दनवन संबंधी पुष्प श्रेणियों के उपहार ( भेंट ) और हरिचन्दन नाम के कल्प वृक्ष की सुगन्धिवाली गन्धकुटी से अलकृत था । जो अनेक मानस्तम्भ, तालाव, तोरण, स्तुप, ध्वजाएं व धूप घट और निधियों से व्याप्त था। जिसमें घर्णेन्द्र, चक्रवर्ती व इन्द्र की सेनाओं द्वारा विस्तृत व महान महोत्सव किया गया था और जो चारों और मवसेन आदि जैनाभासों की प्रभावनावाली यात्रा का आधार था । २४४ परन्तु जब जैन सिद्धान्त के उपदेशरूपी जल की इरावती नदी-सरीखी रेवती रानी ने इस वृत्तान्तघटना को किसी जैनाभास की बुद्धि से घटित हुई जानो तब कहा - 'निश्चय से जैन सिद्धान्त में तीर्थंकर 'चौबीस हो माने गये हैं; जो कि इस समय मुक्तिरूपी वधू के महल के मध्य में बिहार करने वाले हैं, अतः यह कोई दूसरा ही मायाचारी, तीर्थंकर का रूप धारण करके प्रकट हुआ है।' उक प्रकार निश्चय करके भ्रान्ति १. इन्द्रजालविद्या | २. रुद्रः । ३. मगद उत्तरदिशि । ४. धनुः 1 ५. ५०००। ६. प्रमाण । ७. चतुति । ८. २०००० । ९. कृतावतार। १०. वच । ११. धूलीसाल, मुसाल, रूयशाल, स्फटिकसाल, गंधकुटीत पंचसाला | वृक्षवनकल्पवृक्षवनोदचतत्र भूमयः सालाश्चत्वारः इति नवप्रकाराः । १२. सिंहासनम् । १३. देवदुन्दुभिः । १४. विकसत् । १५. गाथा – उम्रवणवाविजलेणं सिमा पिछति एकभवजादि । तस्स निरीक्षणमेत्ता, सप्तभवाती भावादि ॥ १|| इलोक अन्धाः पश्यन्ति रूपाणि श्रृण्वन्ति बधिराः श्रुति। मुकाः स्पष्टं विभाषन्ते चंक्रम्यन्ते च पंगचः । स्मृतिः चन्यासुतप्राप्तिः दुर्भिक्षादीनां विनाशः । १६. धूपघट 1 १७. इरावती नदी । १८. बुद्धेः । १९. परिभ्रामस्त्येन आत्मधामनि । २०. रेवतीमनः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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