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________________ २४६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये इत्युपासकाध्ययनेऽमूढताढिपरिवृढो नामेकादशः कल्पः उपस्थितीकारी यथाशक्तिप्रभावनम् । वात्सल्यं च भवन्त्येते गुणाः सम्यक्त्वसंपदे ॥ १८७॥ तत्र - शान्त्या सत्येन शौचेन मावेनार्जवेन च । तपोभिः संघर्मदर्भिः कुर्यात्समय हणम् ॥१८८॥ सवित्री तनुजानामपराधं सघमंसु । वंप्रमावसंपनं मिगृहे गुणसंपदा ॥ १८९ || अशक्तस्यापराधेन कि धर्मो मलिनो भवेत् । न हि भेके मृतं याति पयोषिः पूतिगन्धिताम् ॥ १९० ॥ दोषं गृहति नो जातं यस्तु धर्म न वृंहयेत् । दुष्करं तत्र सम्यक्त्वं जिनागम बहुः स्थिते ।।१९१ ।। श्रूयतामत्रोपाख्यानम्-- सुराष्ट्रदेशेषु मृगेक्षणापक्ष्मल लावलोकितापहसितानङ्गास्त्रतन्त्रे पाटलिपुत्रे सुसीमा - कामिनीमकरध्वजस्य यशोध्वजस्य भूभुजः पराक्रमाक्रान्तसकलप्रबीरः सुवोरो नाम नुरनासादितविद्याबुद्धसंयोगसम याविषयक प्रषियत्वाच्च प्रायेण परद्रविणवारादानोदारक्रियः श्रोष्टार्थमेकवर क्रीडावने गतः कितव किरात पश्यतोहरबीरपरिमिवमवादीत् 'अहो, विक्रमैकरसिकेषु महासाहसिकेतु भवस्तु मध्ये कि कोऽपि मे प्रार्थनातिथिमनोरथसार' इस प्रकार उपसकाध्ययन में अमूला बढ़ाने में समर्थ यह ग्यारहवाँ कल्प समाप्त हुआ । अब उपगूहन अङ्ग का निरूपण करते हैं उपगूहन (सामियों के दोप आच्छादित करना ), स्थितिकरण | सम्यक्त्व व चारित्र से विचलित हुए प्राणियों को पुनः धर्म में स्थिर करना, शक्ति के अनुसार प्रभावना ( जिनशासन के माहात्म्य को प्रकाशित करना) और वात्सल्य ( धार्मिक पुरुषों से अनुराग प्रकट करना ) ये गुण सम्यक्त्वरूपी लक्ष्मी को वृद्धि के लिए हैं ||१८७|| क्षमा, सत्य, शोच ( लोभ का त्याग ), मार्दव ( विनय ), आर्जव (निष्कपटता ), तप, संयम और दान इन प्रशस्त गुणों से शासन को वृद्धि करनी चाहिए ||१८८ || जैसे माता अपने पुत्रों के दोष आच्छादित करती है वैसे ही साधर्मियों में से किसी से देव व प्रमाद से कोई दोप बन गया हो तो उसे गुणरूपी सम्पत्ति से आच्छादित करना चाहिए ।। १८९ || जैसे समुद्र में मेढ़क के मर जाने से समुद्र दुर्गन्धित नहीं होता वैसे ही क्या असमर्थ मनुष्य के द्वारा किये हुए अपराध से घर्म मलिन हो सकता है ? || १९०|| जो मानव साधर्मी जनों के दोष नहीं ढकता और न धर्म की वृद्धि करता है, वह जेनागम से बाह्य है, उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होना दुर्लभ है || १९६१ ॥ उपगूहन अङ्ग में प्रसिद्ध जिनेन्द्र भक्त की कथा इस अङ्ग के विषय में एक कथा है, उसे श्रवण कीजिए-सुराष्ट्र देश को मृगनयनी कामिनियों के नेत्रों के पलकों के अग्रभागवाले कटाक्षों से कामदेव के बाणों के कार्य को तिरस्कृत करनेवाले पाटलीपुत्र नगर में सुसीमा नामको रानी के लिए कामदेव सरीखा 'ययोध्वज' नामका राजा था। उसके अपने पराक्रम से समस्त बोर पुरुषों पर आक्रमण करनेवाला 'सुवीर' नामका पुत्र था । कभी विद्या-वृद्ध सज्जनों के समागम से शास्त्राध्ययन प्राप्त न होने से जिसका हृदय धूर्ती व विदुषकों के कुसङ्ग से दूषित ( पापी ) हो गया था, जिससे वह प्रायः दूसरों के घन को ग्रहण करने में और दूसरों की स्त्रियों के उपभोग में लम्पट हो गया था । एक बार कीड़ा करने के लिए वह कीड़ा-वन में गया। वहां उसने जुआरी, म्लेच्छ व चौरों की १. उपगृहः स्थिरोकारो यथाशक्ति प्रभावनम्' (क ) २. मातृवत् । वैदसिकः गड्सो प्रीतिदः इत्यनर्थान्तरं । वथानेकार्थे विदुषकोऽन्यनिदके कीडनीयकपाये च कामाशर्यो ३. 'पराक्रमक्रमाक्रान्त' (०) । ४. विद्रूपको | वैश्याचार्यः । ५. नरः । ६. सहायः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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