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________________ ( २२ ) विलक्षण व प्रकाण्ड दार्शनिकता प्रकट करती है, जिसका हम पूर्व में उल्लेख कर आये हैं। परन्तु वे केवल दार्शनिक-चूड़ामणि ही नहीं थे, साथ में काव्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र व राजनीति-आदि के भो घुरन्धर विद्वान थे। कचित्व-उनका यह "यशस्तिलकचम्प' महांकाव्य इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वे महाकवि थे और काव्य-कला पर भी उनका असाधारण अधिकार था। उसकी प्रशंसा में स्वयं ग्रंथकर्ता ने यत्र तत्र जो सुन्दर पद्य काहे हैं, वे जानने योग्य हैं। मैं शब्द और अर्थ पूर्ण सारे सारस्वत रस ( साहित्य रस ) को भोग चुका हूँ; अतएव अब जो अन्य कवि होंगे, वे निश्चय से उच्छिष्ट भौजी ( जूंठा खाने वाले ) होंगे-वे कोई नई बात न कह सकेंगे। इन उक्तियों से इस बात का आभास मिलता है कि आचार्य सोमदेव किस श्रेणी के कवि थे और उनका यह महाकाव्य कितना महत्वपूर्ण है। महाकवि सोमदेव को वाक्कल्लोलपयोनिधि और कविराजकुन्जर आदि उपाधियों भी उनके श्रेष्ठ कबित्व की प्रतीक हैं। धर्माचार्यत्व-यद्यपि अभी तक श्रीमत्सोमदेवसूरि का कोई स्वतंत्र धार्मिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, परन्तु यशस्तिलक के अन्तिम तीन आश्बास (६-८). जिनमें उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) का साङ्गोपाङ्ग निरूपण किया गया है, एवं यश के चतुर्थ आश्वास में वैदिकी हिंसा का निरसन करके अहिंसा तत्व की मार्मिक व्याख्या की गई है एवं अनेक जेनेतर उद्धरणों द्वारा जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध की गई है, इससे उनका धर्माचार्यत्व प्रकट होता है। राजनीतिज्ञता-श्रीमत्सोमदेवसूरि के राजनीतिज्ञ होने का प्रमाण उनका 'नीतिवावयामृत' तो है ही, इसके सिवा 'यशस्तिलक' के तृतीय आवास व चतुर्थ आश्वास में यशोधर महाराज का चरित्र-चित्रण करते समय राजनीति की मन्दाकिनी प्रवाहित जीई है यह भी उनकी राजनीतिज्ञता की प्रतीक है। विशाल अध्ययन-'यशस्तिलक' व 'नीतिवाशमत' ग्रन्थ उनका विशाल अध्ययन प्रकट करते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि उनके समय में जितना भी जेन व जैनेतर साहित्य ( न्याय, व्याकरण, काव्य, नीति का दर्शन-आदि ) उपलब्ध था, उसका उन्होंने गम्भीर व तलस्पी अध्ययन किया था । ग्रन्थकर्ता का समय और स्थान-'यशस्तिलकचम्पू के अन्त में लिखा है कि चैत्र शुक्ल १३ शक सं० ८८१ ( विक्रम संवत् १०१६) को, जिस समय श्री कृष्णराजदेव पाण्डथ, सिंहल, चौल व चेरनप्रभृति राजाओं को जीतकर मेलपाटी नामक सेना-शिविर में थे, उस समय उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त 'वहिंग' की ( जो चालुक्यवंशीय अरिकसरी के प्रथम पुत्र थे) राजधानी गंगाधारा" में यह काव्य समाप्त हुआ और 'नीति १. देखिए आ. १ पलोक नं. १४, १८, २३ । २. देखिए-आ.२ श्लोक नं. २१६ मा. ३ लोक नं. ५१।। 1. मया वागर्थसंभारे मुक्त पारस्थते रसे । पावोऽम्ये भविष्यन्ति नूनमुच्छिष्ट भोजनाः ॥ चतुर्थ पाश्वास एलोक नं. २२३ नपकालातीतसंवत्परतवष्टस्येकाशीत्यधिकष गतेष अतः/८८१) सिद्धार्थसंवत्सरांतर्गतचत्रनासमदनत्रयोदयां पाच-सहल-चोल-चरमप्रभृतीन महीपतीन् प्रसाध्य मस्याटो । मेलपार्टी ) प्रवर्धमानराज्यप्रभावे श्री कृष्णराजदेवे सति तस्यादपयोपजीविनः समधिगतपञ्चमहापाउदमहासामन्ताधिपतेय चालुक्यकुल जन्मन: सामन्तचूडामणेः श्रीमरिके परिणः प्रथम पुत्रस्य श्रीमदागराजस्व लक्ष्मीप्रवर्धमानवसुधारायां गङ्गाधारायां विनिर्मापितमिदं काव्यमिति ।" ५. पालुक्यों की एक शाखा 'जोल' नामक प्रांत पर राज्य करती थी, जिसका एक भाग इस समय के धारवाड़ जिले में आता है और श्री. आर. नरसिंहाचार्य के मत से चालुक्य अरिकेसरी की राजधानी 'पुलगेरी' में थी, जो कि इस समय 'लक्ष्मेश्वर' के नाम से प्रसिद्ध है। गंगापारा भी संभवतः वही है ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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