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अन्यकर्ता का परिचय--प्रस्तुत शास्त्रकार श्रीमत्सोमदेव सूरि द्वारा स्वयं लिखी हुई यशस्तिलक की पद्यप्रशस्ति' से विदित होता है कि 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य के रचयिता आसायप्रवर श्रीमसोमस्य सूरि है, जो कि दि. जैन सम्प्रदाम में प्रसिद्ध व प्रामाणिक चार संघों में से देवसंघ के आचार्य थे। इनके गुरु का नाम 'मिदेव' और दादा गुरु का नाम 'यशोदेव' था। मंथकर्ता के गुरु दार्शनिक चुडामणि थे; क्योंकि उन्होंने ९३ महावादियों को शास्त्रार्थ में परास्त कर बिजयश्री प्राप्त की थी। 'नीनिवाक्यामृत' की गद्य प्रशास्ति' से भी यह मालूम होता है कि श्रीमत्सोमदेच मूरि' के गुरु श्रीमान्नेमिदेव ऐसे थे, जिनके चरण वामल समस्त तार्किक समूह में चूडामणि विद्वानों द्वारा पूजे गये हैं एवं पचपन महावादियों पर विजयत्री प्राप्त करने के कारण प्राप्त की हुई कीतिरूपी मन्दाकिनी द्वारा जिन्होंने तीन भुवन पवित्र किये हैं तथा जो परम तपश्चरण रूप रत्नों के रत्नाकर (समुद्र) है। उसमें यह भी उल्लिखित है कि सोमदेव सूरि वादीन्द्रकालानल श्री महेन्द्रदेव भट्टारक के अनुज (लघुभ्राता) थे। श्री महेन्द्रदेव भट्टारक की उस 'वादीन्द्रकालामल' उपाधि उनकी दिग्विजयिनी दार्शनिक विद्वत्ता की प्रतीक है । प्रस्तुत प्रशस्ति से यह भी प्रतीत होता है कि श्रीमसोमदेव सूरि अपने गुरु व अनुज सरीखे ताकिक चुडामणि य कविचक्रवर्ती थे। अर्थात्-श्रीमसोमदेव सूरि 'रयावादाचलसिंह' 'ताकिकचक्रवर्ती', 'वादीभ पंचानन', वाक्कल्लोलपयोनिधि' व 'कविकुलराज' इत्यादि प्रशस्ति (उपाधि) रूप प्रयास्त अलवारों से मण्डित हैं।
साथ में उसमें यह भी लिखा है कि उन्होंने निम्नयकार शास्त्र-रचना की थी। अर्थात्-वे पण्णवति प्रकरण (९६ अध्यायवाला शास्त्र), युक्तिचिन्तामणि ( दार्शनिक ग्रन्थ ), त्रिवर्गमहेन्द्रमातलि-संजल्प (धर्मादिपुरुषार्थत्रय-निरूपक नीतिशास्त्र), यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य श्रीर नीतिवावयामत' इन महाशास्त्रों के बृहस्पति-सरीखे रचयिता है। उक्त तीनों महात्माओं { यशोदेव, नेमिदेव व महेन्द्र देव ) के संबंध में कोई ऐतिहासिक सामग्री व उनकी ग्रन्थ-रचना-आदि उपलब्ध न होने के कारण हमें और कोई बात जात
ताकिचूडामणि-श्रीमसोमदेव मूरि भी अपने गुरु और अनुज के सदृश बड़े भारी ताकिक विद्वान्थे । एनके जीवन का बहुभाग षड् दर्शनों के अभ्यास में व्यतीत हुआ था, जसा कि उन्होंने 'यशस्तिलक' की उत्थानिका में कहा है-'शुष्क घास सरीखे जन्मपर्यन्त अभ्यास किये हुए पक्षान्तर म ( भक्षण किये हुए ) दर्शन शास्त्र के कारण मेरी इस वुधिरूपी गौ से 'यस्तिलक' महाकाव्य रूप दूध विद्वानों के पुण्य से उत्पन्न हुआ है। उनकी पूर्वक्ति, स्पावादाचलसिह, बादीमपंचानन व ताकिक चक्रवती-आदि उपाधियां उनकी दार्शनिक प्रकाण्ड विद्वत्ता की प्रतीक हैं। साथ में प्रस्तुत 'यशस्तिलक' के पंचम, घष्ठ व अष्टम आश्वास में सांख्य, वैशेषिक, बोस, मीमांसक च चार्वाक आदि दार्शनिकों के पूर्वपक्ष व उनकी युक्ति-पूर्ण मीमांसा भी उनकी
१. श्रीमानस्ति स देवसतिलको देवो यशःपूर्वकः, शिध्यस्तस्य बभूव सद्गुणनिधिः श्री नेमिदेवालयः ।
तस्याश्चर्यशपः स्वितेस्त्रिनवते जेतुमहावादिना, शिष्योऽभूदिह सोमदेव यतिपरसत्यप काम्यक्रमः || -'मस्तिलकचम्प', २. इति सकलताकिकवचूहामणिचुम्बितचरणस्प, गंचपंचायान्महावादिविजयोपाजितकीतिगन्दाकिनोपविलितत्रिभुवनस्य,
परमतपश्चरणरत्नीदन्यत: त्रीमन्नेमिदेवभगवतः प्रियविष्यण, वादोन्द्रमालामलधीमन्महेन्द्रदेवभट्टारवान जेन, स्माद्वा. वाचलसिंह-वाकिकचक्रवति-बादीमपंचानन-वामकल्कोकपयोनिधि-विकराजप्रतिप्रशस्तिप्रशस्तालङ्कारण, रणवतिप्रकरण गुक्तिचिन्तामणिसूत्र महेन्द्र मातष्ठिसंजलप-यशोधरमहाराजचरितमहाशास्त्रघसा श्रीसोमदेवमूरिणा विरंचित (मीसिवाक्यामृ ) समाप्तमिति ।-नीतिवाक्यामृत ३.लिए मा. आ०१ एलोकनं०१७।