________________
( २० )
२. दूसरे कल्प का नाम 'आस्वरूपमीमांसन' है। इसमें आप्त के यथार्थ स्वरूप का निर्देश करते हुए, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, बुद्ध व सूर्य आदि को देव मानने की युक्तिपूर्वक समालोचना की गई है। साथ में जैन तीर्थंकरों को आप्त मानने में किये हुए आक्षेपों का समाधान युक्ति पूर्वक किया गया है।
३. तीसरा कल्प 'आगमपदार्थपरीक्षण' नाम का है। इसमें आगम के पदार्थों ( जीवादि ) का स्वरूप विवेचन करते हुए कहा है कि ये सभी पदार्थ ( जीवादि ) द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा स्वभाव से वैसे उत्पाद, विनाश व स्थिर शील हैं जैसे समुद्र की तर उक नयों की अपेक्षा स्वभावतः उत्पाद, विनाश व स्थिर शील हैं। पश्चात् समस्त वस्तु को प्रतिक्षण विनाशशील मानने वाले बौद्धों की और समस्त वस्तु को सर्वथा नित्य मानने वाले सांख्य की अकाट्य युक्तियों से समीक्षा की है। पश्चात् जैन साधुओं में आरोपण किये हुए दीपों ( स्नान न करना, आचमन न करना, नग्न रहना व खड़े होकर भोजन करना ) का युक्ति पूर्वक समाधान किया गया है।
४. चौथा कल्प 'मूतोन्मथन' नामका है, इसमें सूर्य को वर्ष देना व ग्रहण में स्नान करना आदि मूढताओं के त्याग का विवेचन हैं। इसके पश्चात् पञ्चम कल्प से लेकर बीस कल्प पर्यन्त ( पु० २१२-२८१ ) सम्यग्दर्शन के निःशङ्कित-आदि आठों अंगों में प्रसिद्ध अञ्जन चोर, अनन्त मति, उद्दायन, रेवतीरानी, जिनेन्द्रभक्त सेठ, वारिषेण, वनकुमार व विष्णु कुमार मुनि की रोचक कथाएँ ललित व क्लिष्ट संस्कृत गद्य में कहीं गई हैं। ये कथाएँ अन्य किसी श्रावकाचार में नहीं हैं। प्रत्येक कथा के पूर्व उस अङ्ग का स्वरूप महत्वपूर्ण पद्यों में कहा गया है । २१ व कल्प में सम्यग्दर्शन का विस्तृत विवेचन करते हुए रत्नत्रय का स्वरूप- आदि बतलाया है। सप्तम आश्वास, जो कि वाईस कल्प से ३३ कल्प पर्यन्त ( पृ. २९,४-३७५ ) है ।
२२-२३ कल्प में मद्य प्रवृत्ति के दोष च मद्य निवृत्ति के गुण बतलाने वाली कथाएँ हैं । २४ वें कल्प में मांस त्याग आदि का विवेचन करते हुए मांसभक्षण का संकल्प करने वाले सौरसेन राजा की कथा है। २५ वेंकल्प में मांस त्यागी चॉडाल की कथा है।
२६-३२ कल्पों में पाँच अणुव्रतों का वर्णन है एवं हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के कटुफल वर्णन करते हुए पांच कथाएं विस्तृत गद्य शैली मे वर्णन की गई है, जो कि विशेष रोचक व नैतिक शिक्षा से ओत प्रोत हैं । ३३ में 'कल्प में' तीन गुण व्रतों का वर्णन है ।
३४ वे कल्प में सामायिक शिक्षाव्रत का कथन है, परन्तु सोमदेव ने सामायिक का अर्थ जिन पूजा संबंधी क्रियाकाण्ड कहा है । अतः ३४ वें कल्प में स्नानबिधि, ६५ में समय समाचार विधि, ३६ में अभिषेक व पूजन विधि, ३७ में स्तवन विधि ३८ में जय विधि ३९ में ध्यान विधि और ४० में कल्प में ताराधन विधि का वर्णन है । यह समस्त वर्णन विशेष महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि दूसरे श्रावकाचारों में नहीं है । सोमदेव को ध्यान विधि का वर्णन अनोखा व महत्वपूर्ण है । ४१ वें कल्प में प्रोषधोपवास का और ४२ वे कल्प में भोगोपभोगपरिमाण व्रत का कथन है ।
४३ व कल्प में दानविधि का वर्णन अनोखा व विशेष महत्व पूर्ण है । ४४ में कल्प में ग्यारह प्रतिमाओं का और मुनियों के नामों की निरुक्ति पूर्वक व्याख्या की गई है, जो कि नई वस्तु है । ४५ वें कल्प में सल्लेखना का और ४६ वें कला में प्रकीर्णक सुभाषितों का कथन है ।
इस प्रकार श्रीमत्सोमदेवसूरि का उपासकाध्ययन विशेष महत्वपूर्ण है ।