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________________ १४२ यशस्तिलकधम्पूकाव्ये तसाव्यव्याधिपरिगृहीतदेहबदस्य राज्यस्य परित्याग एव स्वास्थ्य नान्धया' इत्यवार्य । एषोऽहं मम कर्म शर्म हरते तद्बन्धनान्याबस्ते क्रोधाविवशाः प्रमावनिताः क्रोषादयस्त्ववतात् । मिथ्यात्वोपचित्ताततोऽस्मि सततं सम्यक्त्ववागतंयमी इसाक्षीणकषाययोगतपसां कर्तेसि मुक्तो यतिः ॥५३|| इति न सुभाषितमात्पनिले निधाय, पतेषु कतिपयेषु गणराप्रेष्यनुजस्य राज्यधियं समर्प, प्रसिपन्न जिनशचितावरण चतुर्थ माधमशिधियत् । अस्तीवानी तस्यामेवैकानस्यामममिथुनमान्यमानर्माणमयकटं सहस्रकूट नाम निजहिमायोरिनामरावतीवसतिसतिः, या नयनोतिरिव नवभूमिका, योगस्थितिरिव विहितवृषभेश्वरावतारा, सांख्यजनतेय कपिलतालयशालिनी, अतः इस राज्य का त्याग ही वैसा श्रेयस्कर है जैसे असाध्य व्याधियों से चारों ओर से ग्रहण किये गये पारीर का त्याग श्रेयस्कर होता है । अन्यथा ( यदि राज्यथी का त्याग नहीं किया जाता ) तो यथार्थ सुख प्राप्त नहीं हो सका । तदनन्तर प्रस्तुत सुदत्त महाराज ने अपने मन में निम्न प्रकार का सुशापित श्लोक धारण किया । कर्म ( ज्ञानावरण-आदि ) मेरा आत्मिक सुख नष्ट करते हैं और कर्मबन्धन आत्रवों ( कषायादि कर्मों के आगमन द्वारों ) के कारण होते हैं। एवं आसव, क्रोध, मान, माया व लोमरूप कषायों के अधीन हैं, और क्रोधादि कपाय, प्रमादों से उत्पन्न होते हैं तथा प्रमादों द्वारा उत्पन्न हुए क्रोधादि, मिथ्यात्व से वृद्धिमत हुए अव्रत ( हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह ) से होते हैं। इसलिए प्रत्यक्ष प्रतीत हुआ मैं [ उन कर्मबन्धनों के नष्ट करने के लिये ) सम्यग्दृष्टि, संयमी, प्रमादरहित, कषायों का क्षय करनेवाला, धर्मध्यान व तपश्चर्या करनेवाला एवं मोक्षमार्गी ऐसा दिगम्बर तपस्वी होता हूँ ॥५३॥ तत्पश्चात् उसने कुछ रात्रि-समूह के व्यतीत हो जाने पर अपने छोटे भाई के लिए राज्यलक्ष्मी समर्पण करके दिगम्बर मुद्रा के योग्य आचरण स्वीकार करते हुए मुनि-आश्रम में प्रवेश किया। [ हे 'कन्दल. विलास' नाम के विद्याधर !] ___ उसी उज्जयिनी नगरी में देव-देवियों द्वारा पूजने योग्य मणियों के शिखरों वाली और अपनी महिमा से अमरावती (स्वगपुरी ) के प्रासादों को तिरस्कृत करनेवालो सहस्रकूट नाम की वसति (प्रासाद या जिनमन्दिर ) है । जो वेसी नवभूमिका या पाठान्तर में नवभूकः' (नवीन भूमि बालो ) है जैसे नयों को नीति नवभूमिका' या नवभूका ( नौ भेद वाली) होती है। जो वेसों विहित वृषभेश्वरावतारा' (वृषभ जिन के अवतरण वालो ) है जैसे योगस्थिति ( नैयापिक व वैशेषिक के दर्शन ) विहित वृषभेश्वरावतारा (कोभु के अवतार वालो ) होती है। जो वैसी कपि-मतालय-शालिनो' ( वन्दरों व लतागृहों से सुशोभित ) है, जैसे १. 'नवभूका' इति ह. लि. सदि. ( ख ) प्रती पाठः । २. नयनीतिनवविधा-नगमस्त्रिविधी द्रव्यपर्यायोभय भेदेन, संग्रव्यवहारादयश्च षड्भेदाः । ६. लि. स. टि. प्रति (4) से संकलित३. वृषभेश्वरः पांभुरादितीर्थकररुच । ४. नैयायिक वैशेषिकप्रयोगाः । ५. कपिलदेवतालयेन शालते इत्येवं शीला, पझे मर्कट: लतागृहः शालिनी शोभमाना।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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