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________________ पञ्चम आश्वासः १४१ प्रकटाकृतिषु प्रासादशिखरेषु, क्षितौद्रयरेष्विव राजहंसोपसेव्यमान कोशेषु पौष्करेयकानतेषु प्रफुल्लकमलकानन मधुपानयत मन्द मन्दसंचारिणि प्रचाति भातिके मवति, प्रत्यावृत्तेषु च वत्तदक्षिणेषु द्विजेष्विव राजकुलानां सेवावसरेषु कृतास्थानस्य प्रविश्य तलवरः परिभूषितनगरना पितप्राणद्रविण सर्वस्त्र मेकमेकागारिक मानो यावर्शयत् । स राजा तमवलोक्य धर्मस्यानां मुखानि व्यलोकिष्ट । धर्मस्थीयाः- वेव, अनेन मलिनात्मना मलिम्लुचेना वितीयं साहसमनुष्ठितमेकं तावदात्रिपिताम्यच सुसुप्त मनुष्यहिंसा कृता । तवस्य पाटच्चरस्य चक्रीववारोहणोच्छिष्टशालाजि राजिबन्धविम्वमपूर्वक चित्र वम्रः कर्तव्यो मषार्य व नक्षत्रवाणिज्यो दशभिविभिर्या दिवसेर सुविसृजति' । राणा स्वगतम् 'अहो कष्टं खलु प्राणिनां सत्यगोत्रेश्यमाविर्भावः यतो यदि न्यायनिष्ठुरतया श्रोणीधराः क्षितिरक्षा वक्षन्ते तवावश्यं पापोपनिपातः परलोक तिसंपातश्च । तदुक्तम्— 'नरकान्तं राज्यं बन्धनान्तो नियोगः' इति । अन वान्ते वर्णाश्रमध्यवस्थाविलोपः कापुरुषोल्लापश्च । तथाहि । श्रीघेतायं क्षणाल्लोकः अतरक्षः क्षितीश्वरः । लक्ष्मीक्षपः क्षये तस्य कि राजस्वं च जायते ॥ ५२॥ जब कमल वन वैसे हंस पक्षियों द्वारा सेवन किये जा रहे कोश ( मध्य भाग ) वाले थे जैसे राजा लोग राजहंसों ( सामन्त राजाबों) द्वारा सेवन किये जा रहे कोश ( धन-संपत्ति या राजखजाना | वाले होते हैं और जब प्रातः कालीन वायु मन्द मन्द संचार कर रही थी, इससे ऐसी प्रतीत होती थी- मानों-प्रफुल्लित कमळबनों का मधुपान (पुष्परस या मद्यपान ) करने से मत- उन्मत्त हुई है। अब सामन्त राज-समूह की सेवाओं के अवसर वैसे प्रत्यावृत्त ( व्यतीत ) हो रहे थे जैसे जिन्हें दक्षिणा (दान) दी गई है. ऐसे ब्राह्मण [ सन्तुष्ट हुए ] प्रत्यावृत्त ( वापिस जाने वाले ) होते हैं । तदनन्तर प्रस्तुत सुदत्त महाराज ने उस चोर को देखकर [ समुचित न्याय करने के हेतु ] धर्मस्थयों' ( अपराधानुकूल दंडव्यवस्था करनेवाले धर्माधिकारियों) के मुखों की बार दृष्टिपात किया ! तब धर्माधिकारियों ने कहा- हे राजन् ! इस पापी चोर ने अनोखा या बेजोड़ साहस ( लूटमार, हत्या व बलात्कार आदि कुकृत्य ) किया है। क्योंकि एक तो इसने रात्रि भर चोरी की और दूसरे सोये हुए मनुष्य की हत्या कर डालो ! अतः इस पाटच्चरर (चोर) का गधे पर चढ़ाना व जूँ सकोरों को श्रेणी बांधने की विडम्बना (दुःख) पूर्वक ऐसा चित्र वध करना चाहिए, जिससे यह, दश या बारह दिनों में प्राण त्याग कर देवे । अन्तर प्रस्तुत सुदत्त महाराज ने अपने मन में निम्नप्रकार विचार करते हुए निश्चय किया । 'आश्चर्य है निस्सन्देह प्राणियों को क्षत्रियवंशों में यह उत्पत्ति कष्टप्रद है' क्योंकि यदि राजालांग न्याय की उग्रता से पृथिवी की रक्षार्थ हिंसा करते हैं तो निश्चय से उन्हें गाप का आगमन व परलोक (स्वर्गादि) की हानि का प्रसङ्ग होता है। क्योंकि नीतिकारों ने कहा है--' राज्य अन्त में नरक का कष्ट देता है और राज्याधिकार अन्त में बन्धन का कष्ट देता है । और यदि राजा लोग न्याय की उग्रता से पृथिवी की रक्षायं हिंसा नहीं करते ( अन्यायियों को दण्डित नहीं करते तो वर्णों ( ब्राह्मण आदि ) व माश्रमों ( ब्रह्मचारी आदि ) की मर्यादा ( सदाचार ) नष्ट होती हैं। एवं उनके ऊपर कायरता का आक्षेप होता है। उक्त बात को कहते हैं - यह लोक ( पृथ्वीमण्डल ) राजाओं द्वारा की हुई रक्षा से रहित होने से क्षण भर में नष्ट हो जाता है और लोक के नष्ट हो जाने पर सम्पत्ति नष्ट हो जाती है और सम्पत्ति नष्ट हो जाने पर राजापन कैसे रह सकता है ? ॥ ५२ ॥ १. तदुक्तं सर्ववर्णाश्रमाचार विचारोचितचेतसः । दण्वाचो यथा दोघं धर्मस्थोयाः प्रकीर्तिताः ॥ १ ।। २. एका गरि मलिम्लुच पाटयचर-नक्षत्राणिजकाः चौरपर्यायाः
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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