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________________ पञ्चम आश्वासः अमरगुरुभारतीच निधारितपरलोकवर्शना, मीमांसव निरूप्यमाणनियोगभाषनाविप्रपश्चा, पिटकश्यपचतिरिय योगाचारगोचरा, महापुरुषमंत्रीव स्थिराषिष्ठाना, सत्सचिवप्रयुकिरिष सुटिससन्धिः, अभिनवविलासिनीष मुफुत्रहलविलोफना, कुषुमारविष्य बयिस्मयावहा, विजयसेनेव बाहुबलिविविता, क्ष्यगुणनिकेव सुपाश्र्वागता, कुबेरपुरोष यक्षमिपनसनाया, नन्दनवनलक्ष्मीरिवाशोफरोहिणोपेशला, शंभुसमाधिविध्य सबैलेख प्रकटरतिजीवितेशा, सुविकृतिरिव चित्रबहला, मुनि सांपजनता कपिलता-लय-शालिनी ( कपिल मुनि में लय से होने वाली स्वरूप प्राप्ति से मुशोभित ) होती है । जो वैसी निवारित परलोकदर्शना' ( मिथ्याष्टियों के मतों को निवारण करने वाली ) है जैसे अमरगुरुभारती (वृहस्पति का दर्शन ) निवारितपरलोकदर्शना ( परलोक ( स्वर्गादि ) की मान्यता को निराकरण करने वाली) होती है। जो वैसी निरूप्यमाणनियोगभाबनादिप्रपञ्चा (नियोग--चरपानुयोगादिप्रश्न व दर्शनविशुद्धि-आदि षोडश कारण भावनाओं के विस्तार को निरूपण करने वाली) है, जैसे मीमांसा ( मीमांसकदर्शन ), निरून्यमाणनियोगभावनादिप्रपञ्चा ( नियोग व भावनारूप वाक्यार्थ के विस्तार को निरूपण करने वाली ) होती है। जो वैसी योग-आचार-गोचरा { योग । आप्त, आगम व पदार्थों के यथार्थ ज्ञान से व्याप्त हलन-चलनरूप आत्मप्रदेश) व आचार ( संचित कर्मों के क्षय का कारण च भविष्यत् कर्मों के आगमन को रोकने में कारण संयमधर्म । की पद्धति है, अथवा योग ( धर्मध्यान व शुक्लध्यान ) तथा आचार (सम्यग्चारित्र की पद्धत है। अर्थात् जो धर्मध्याना, सुक्लध्यानी व चारित्रनिष्ठ महापयों से व्याप्त है, जैसे पिटकवयंपद्धति ( धर्म, संघ या संज्ञा तथा ज्ञान ये बौद्ध-दर्शन में पिटकत्रय हैं ) योगाचार गोचरा ( ज्ञानाद्वैतवादी बौद्धों से माननीय ) होती है। जो वैसी स्थिर-अधिष्ठाना ( निश्चल आचार बाली या स्थान वाली ) है, जैसे महापुरुषों की मित्रता स्थिराधिष्ठाना ( चिरस्थायिनी) होती है। जो वैसी सुघटितसन्धि" ( अच्छी तरह रची हुई मिलापवाली ) है, जैसे प्रशस्त सचिव ( मन्त्री) को सन्धि-प्रयुक्ति ( सामनीसि का उपयोग ) सुघटित सन्धि ( अच्छी तरह से तैयार किये हुए मैत्री के विधानवाली ) होती है । जो वैसी सुकुतुहल विलोकना ( कौतुक. जनक दर्शनबाली) है जैसे नवीन वेश्या सुकुतूहलविलोकना (उत्तम नेत्रांवाली या कामो पुरुषों के लिए श्लाघनीय दर्शनवाली ) होती है। जो वैसी बहुविस्मयावहा (विशेष आश्चर्य जनक पदार्थों ( चित्रादि ) को धारण करनेवाली) है, जैसे कुचुमार विद्या ( इन्द्रजालिया को कला ) बहुविस्मयावहा ( दर्शकों के चित्त में विशंप आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली ) होती है । जो वैसी बाहुबलिविदिता' (जहाँ पर बाहुबलिस्वामी केवली चित्र-लिखित ) हैं, जैसे विजयसेना १. वहस्पति मा परलोको नास्ति, पक्षे परेपा मियादष्टीना मलानि यत्र वार्यन्ते । २. मीमांसकमने नियोग मावनावाक्यार्थः, स्वपक्षे चरणानुयोगादिप्रश्नः दानविशुद्धयादिकाः भावनाः । ३. योगः आसागमपदार्थ यायात्म्यज्ञानानुवियसपरिस्पन्दात्मप्रदेशः, उपात्तागामिककमक्षयप्रतिबन्धहेतुराचारः । ___अथवा-योगे ध्याने दे, आचारतयोः पञ्चतिः, पक्षान्तरे तु योगाचारः ज्ञानावंतवावी । ४. धर्म: संघः ज्ञानमिति पिटकार्य । अथवा धर्म संजाज्ञानानि इति पिटकत्रयं । ५. सन्धिर्योनो पुरंगाया नद्यांगे हलेष मेदयोः । 'सन्यिदल' सन्धि विग्रहीयानमित्यमरः । ६. सदैवत-संपत्तो स्वामिनः स्त्रस्य विपसीस्तदरातिषु यः साधयति बुद्धपैव तं विदुः सचिव वृषाः ।। १ ।। ७. कुसुमार: अथवा पाठान्तर में कचुमारः कुहविद्योपाध्यायः । हलि. सटिप्पण प्रतियों से संकलित-सम्पादक ८. बाहुबलीश्वर: केवली च । ९. विजयो जये पार्थ बिमाने विजयोमातत्सख्योस्तिथापि ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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