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________________ भार ४७९ इत्येव गुहिणां धर्मः प्रोक्तः क्षितिपतीश्वर' । यतीनां तु श्रुताज्जेयां सुलोत्तरगुणाः ॥४८४ ॥ इत्थं द्वियधर्मकभावतारं श्रुत्वा सवर्भयुगाचरणप्रचारम् । ग्राह धर्म भवभावसुः । सा देवता स नृपतिः स च परलोकः॥४८५॥ मुनिकुमारयुगलमपि क्रमेण व्यतिक्रान्तबालकालं "सुधाशनमा धिरोहणं 'यतिविरतिवेषभावतानरूपविकल्पतपः प्रासादकलकाधिरोहणमतिचिरं चरित्रमाचयं अभय रुचिरणापत्सानु स्तत्र मेथी वनरहसि ११ विषाय प्रायमेज्ञानकल्पम् । तिपतितो मारवतोऽपि भूपः समभजत तथैव स्वलक्ष्मीविलासम् ॥४८६ ॥ १ द्वयेन समलंकृत चित्तवृत्तिः सा देवतापि गणिनो १४ महमाचरस्य । होपान्तर "नात जिनेन्द्रसद्म "बभ्याचतानुमत कामपरायणाभूत् ||४८७॥ 1 इसप्रकार हे मारिदत्त महाराज ! हमने यह गृहस्थ धर्म कहा और सुलगुण व उत्तरगुणोंवाला मुनिध आगम से जानना चाहिए ॥ ४८४ ॥ प्रकरण - इस प्रकार उस चण्डमारी देवी, मारिदत्त महाराज और नगरवासी जनों ने मुदत्ताचार्य से श्रावक व मुनिध विषयक व कथाओं के अवतरण वाले और दोनों शिशुओं ( अभयनि क्षुल्लक व उनकी बहिन अभयमति क्षुल्लिका) के आचरण के प्रचारवाले धर्म को सुनकर अपनी पर्याय व परिणामों के अनुसार योग्य धर्म ग्रहण किया । अर्थात् चण्डमारी देवी ने अपनी देवपर्याय के योग्य सम्यग्दर्शन ग्रहण किया और मारिदत्त राजा व नगरवासी मानवों ने अपनी मनुष्यपर्याय के योग्य सम्यग्दर्शन व श्रावकधर्म ग्रहण किया ॥१४८५ ॥ उस क्षुल्लक जोड़े ने भी क्रम से कुमारकाल व्यतीत करते हुए चिरकालतक ऐसा चारित्र ( मुनिधर्म आयिका धर्मं ) पालन किया, जो कि स्वर्गलोक में स्थापित करनेवाला है और जो मुनिवेष ( दिगम्बरमुद्रा ) आकाष में कहे हुए अनेक भेदोंवाले तपरूपी महल पर कलश स्थापित करनेवाला है । अपनी छोटी बहिन ( अभयमति क्षुल्लिका ) सहित अभयरुति क्षुल्लक ने उस चण्डमारी देवी के वन के एकान्त स्थानपर यथाविधि समाधिमरण करके ऐशानकल्प नामका दूसरा स्वर्ग प्राप्त किया और श्री सुदत्ताचार्य से धर्म श्रवण करके श्रावक धर्म धारण करनेवाले मारिदत्त राजा ने भी उसी तरह स्वर्ग-लक्ष्मी का विलास प्राप्त किया ।। ४८६ ॥ सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानरूपी दोनों रत्नों से विभूषित मनोवृत्तिबाली चण्डमारी देवी ने भी श्री सुदत्ताचार्य को पूजा की ओर वह ऐसे जिन चेस्यालयों की वन्दना करने की अनुमति-युक्त इच्छा में तत्पर हुईं, जो कि दूसरे घातकी खण्ड आदि द्वीपों पर व सुनेरुपर्वत पर अथवा ज्योतिषो आदि देव विमानों में स्थित हैं, ॥ ४८७ ॥ १. हे मारदत्तमहाराज ! | २. मुदतनूरैः । ३. श्रावक्ायतिगोचर । ४. जन्मस्वभावदेवता उचितं । ५. भवे सम्यक्त्वं योग्यं मनुजभवं सम्यक्त्वं व्रतं च । ६. धर्म जब्राह । ७. 'स्वर्गलोक' टि० ख० । 'सुधानाः देवाः' पं० । ८. मुनि । ९. आर्या | १०. मगिनीसहितः । ११. एकान्ते । १२. दर्शनज्ञान १३. श्री सुदत्तस्य । १४. महं पूजां कृत्वा । १५. 'ज्योतिरादिविमानस्थितचैत्यालय' | 'पर्वतस्थिति' टि० ख० च० 'धुनगो मेदः' पं० । १६. वन्दारोभविः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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