SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 495
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम आश्वासी १९ अस्त्रधारणवदया। क्लेश हि सुलमा नराः । यथार्थतामसंपन्नाः गाण्डीरा इव घुलमाः ॥१८॥ ज्ञानभाश्मया होने कायालेशिनि केवलम् । फर्म बाहीकार्तिकचियेति' किंचितुवेति च ॥३८॥ सृणिवजाममेयास्य वशापाशपतिनः । "तहते च पहिः क्लेशः पलेषा एव परं भवेत् ॥३८८|| बाहिस्तपः स्वतोऽस्येति ज्ञानं भावयतः सतः । 'क्षेत्रको पनिमग्नेऽत्र कुतः स्युरपराः किया: १३८९॥ "यज्ञानी युगः कर्म गाभिः क्षपका का । तपशानी योगसंपन्नः क्षपवेक्षणतो प्रवम् ।।३९०॥ हानी पटुस्तव स्थाहिः मलेष्टु" तेऽखिले । मातुनिलवे यस्मा पटरवं युपरपि ॥३५१॥ १ शम्बतिहीन गीः शुद्धा यस्य शुद्धा न धोनयः । स परमस्ययास्पिलक्ष्यन्भवेबन्धसमः पुमान् ।।३९२।। अतः शास्त्रज्ञानके अभाव हो जानेपर अपने कल्याण के इच्छुकों को यह समस्त लोक अज्ञानरूपी अन्धकार से च्याप्त हुआ आचरण करता है ॥ ३८५ ।। जैसे तलवार-वगैरह अस्त्रों का धारण करना सुलभ है वैसे ही बाह्य कष्ट उठानेवाले मनुष्य मुलभ हैं परन्तु जैसे दीर पराक्रमी पुरुष दुर्लभ होते हैं वैसे ही सच्चे ज्ञानी दुर्लभ हैं। ३८६ ।। जो मनुष्य ज्ञान की भावना से शून्य है और केवल शरीर को कष्ट देता है, उसका उस प्रकार कुछ कम नष्ट होता है और कुछ नया कर्म उदय में आता है जिस प्रकार बोझा ढोनेवाले का कुछ भार हल्का होता है और कुछ नया भार आता रहता है। इस तरह वह केवल कायक्लेश ही उठाता रहता है ।। ३८७ ।। सच्चे ज्ञान की विशेषता मानव के इस मनरूपो हाथी को वश में करने के लिए सम्यग्ज्ञान ही अङ्कश-सरीखा है, अर्थात्जेसे अधेश हाथी को वश में रखता है वैसे ही ज्ञान मानव के मन को वश में रखता है। सम्यग्ज्ञान के विना मिथ्याधि मानव का वाम काय-क्लेश केवल कष्टप्रद ही है ।। ३८८ ।। सम्यग्ज्ञान की भावना करनेवाले सज्जन साधु के निकट बाह्य तप स्वयं प्राप्त हो जाता है। क्योंकि जब आत्मा ज्ञान में लीन हो जाता है तो अन्य वाह्य क्रियाएं केसे हो सकती है ? ।। ३८२ ।। अज्ञानी ( आत्मज्ञान से शप-मिथ्यादृष्टि) जिन कर्मों को बहुत से युगों में भी नष्ट नहीं कर सकता, ध्यान से युक्त ज्ञानी पुरुष उन कर्मों को निश्चय से क्षणभर में नष्ट कर डालता है ।। ३९० ।। सम्यग्ज्ञानी साधु जब परिपूर्ण यथाख्यात चारित्र प्राप्त करता है तभी उससे वह परिपूर्णज्ञानी ( केवलो ) हो जाता है, उक्त चारित्र के बिना सम्यग्ज्ञानी साधु ज्ञान के लवलेशमात्र से केवली नहीं हो सकता। इसी प्रकार वाह्य कायक्लंश करनेवाला अज्ञानी ( मिथ्यादष्टि ) साधारण शास्त्रज्ञान के लवलेश माय से बहत्त से यगोंमें परिपूर्णज्ञानी ( केवली ) नहीं हो सकता । ( उक्त अर्थ टिप्पणीकार के अभिप्राय से किया गया है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि समस्त बाह्य प्रतों में क्लेग सहन करनेवाले अज्ञानी मुनि से ज्ञानी सार तत्काल कुषल ( कर्मों के क्षय करने में समर्थ ) हो जाता है, किन्तु बाह्म व्रतों को करनेवाला १. विनश्यति । २. उदयभागछति । ३, अकुशवत् । ४. ज्ञाने बिना। ५. आगच्छति । ६. आत्मनि । ७. वाह्या. । *. तणा चौक-बाह्य तपः प्राथिसमेति पुंसो ज्ञानं स्वयं भावयतः सदैव । क्षेत्ररत्नाकरमश्रिमग्ने बाह्याः नियाः सन्तु कुतः समन्ताः ॥ १६ ॥' -धर्मरना०५० १२१ । ८. तथा चीन-'यदलानी क्षपेत् कर्म बहीभिर्मवकोटिनिः । सज्शानघांस्त्रिभिगुप्तः क्षपवेदनहर्ततः ।। १७ ।। -धर्मरत्ना०प० १२९ । १. कलेां कुर्वतः । ३. सम्पूर्ण चारिौ सलि पदः परिपूर्णशानो भवेत् । न तु ज्ञानलबलेशमात्रेण क्षेत्री स्यादिति भावः । १०. व्याकरणः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy