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________________ ४५८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये athi व्यायुक्तानामुपेक्षा मामुपासः । असमाधिर्भवेत्तेषां स्वस्य चाधर्मता ॥ ३८१|| सौमनस्यं सवार्य पास्यातृषु परसू व याचासपुस्तकाहार सौकर्यादिविधानः ।। ३८२ ।। * अपूर्वप्रकीर्णोक्तं मुक्तं केवलिभाषितम् । इयेझिमूं लतः सर्व श्रुतस्कन्धरात्यये ॥ ३८३ ।। प्रभयोत्साहनानन्वस्वाध्यायोचितस्तुभिः । श्रुतयुद्धान्मुनीनजायते श्रुतपार ॥ ३८४॥ " श्रासत्वपरिज्ञानं श्रुतात्समयवर्धनम् । गोविना बुताभावे सर्वमेत समस्यते ॥ ३८५|| से उत्पन्न हुई व्याधियों रोगों को शारीर व्याधि कहते हैं। मानसिक पीड़ा, खोटे स्वप्नोंका देखना व भयआदि से उत्पन्न होनेवाले कष्टों को मानस कष्ट कहते हैं एवं शीत व वात के आक्रमण आदि से उत्पन्न हुई ' व्याधियों को आगन्तुक कहते हैं। इन बाधाओं के दूर करने का प्रयत्न गृहस्थों को करना चाहिए। क्योंकि रोग ग्रस्त मुनियों को उपेक्षा करने से मुनियों के रत्नत्रय को विरावना होती है और भावकों का अधर्म - कार्य प्रकट होता है, अतः गृहस्थों को रुग्ण साधुजनों को उपेक्षा नहीं करनी चाहिए ।। ३८१ ।। श्रुत की रक्षा के लिए घरों की रक्षा का वित अतः जैनागम का व्याख्यान करनेवाले विद्वानों के लिए और जैनागम को पढ़नेवाले छात्रमुनिआदि के लिए रहनेको निवास स्थान, शास्त्र और आहार आदि की सुविधा देकर गृहस्थों को अपनी सज्जनता का परिचय देना चाहिए ।। ३८२ ।। क्योंकि श्रुत-समूह के धारकों (श्रुत के व्याख्याताओं व पाठकों ) के नष्ट हो जाने से तीर्थंकर केवली भगवान् के द्वारा उदिष्ट समस्त श्रुत, जो कि ग्यारह अङ्गों ( श्राचारङ्ग-आदि ) व चौदह पूर्वी तथा प्रकोणकों में कहा हुआ है। जड़ से नष्ट हो जायगा || ३८३ || जो विनय करके, उत्साहवृद्धि करके व आनन्दित करके एवं स्वाध्याय के योग्य शास्त्र आदि वस्तुएँ देकर मुनियों को शास्त्र में निपुण ( विद्वान् ) बनाने का प्रयत्न करता है, वह स्वयं श्रुत का पारगामी ( श्रुतकेवली ) हो जाता है । भावार्थ - प्रस्तुत आचार्यश्री ने धुत समूह के धारकों (श्रुत के व्याख्याताओं व पाठकों ) के लिए सभी प्रकार की सुविधाएँ देकर श्रुत की रक्षा करने के लिए कहा है। वास्तव में अनुशासन को सुरक्षित व उद्दीपित करने में जैनशास्त्रों के ज्ञाता विद्वानों की महती आवश्यकता होती है। और यह तभी संभव है जब जैनों के विद्यालयों व गुरुकुलों में जैनशास्त्रों का पठन-पाठन चालू रहे । यदि जैन समाज में से शास्त्रज्ञान लुप्त हो गया तो धर्म-कर्म भूल जाने से नाममात्र के जैन रह जायेंगे | अतः समाज के आध्यात्मिक विकास के लिए जैनशास्त्रों का पठन-पाठन चालू रखने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए । अर्थात् वर्तमान में जैन समाज में जो विद्यालय व गुरुकुल आदि खुले हुए हैं, जिनमें जैनशास्त्रों का पठन-पाठन आदि चालू है, उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान द्वारा श्रुत लक्ष्मी से अलंकृत होना चाहिए || ३८४ ॥ श्रुत का महत्व शास्त्र से हो मोक्षोपयोगी तत्वों का ज्ञान होता है और शास्त्र से ही जंनव की वृद्धि होती है, * तथा चोक्तं- 'मपूर्वरचितप्रकोपंक बोतराग मुखपद्म निर्गतम् । नव्यतीह सकलं सुदुर्लभं सन्ति न श्रुतपरा यमर्षयः ।। ९९ ।। सरप्रश्नयोत्सानयोग्यदानानन्वप्रमोदादिमहाक्रियाभिः । कुर्वन् मुनीनागमषिद्धचित्तान् स्वयं नरः स्यात्तपारगामी ॥ ९२ ॥ १ तथा चोतेन तवं पुरुषः प्रबुध्यते श्रुलेन बृद्धिः समयस्य सर्वमिदं विनश्यति ।। ९३ ।। ' - घर्मरत्ना० १० १२९ । -- घमंरस्ता० १० १२८ । जायते। श्रुतप्रभावं परिवर्णयेज्जनः श्रुतं विना
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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