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________________ अष्टम आश्वासः ४३३ 'परापरपर देवमेवं चिन्तयतो यते: । भवन्त्यतीन्द्रिमास्ते से भावा लोकोतरश्रियः ॥२३॥ व्योम, छायामसङ्गि यथासूतमपि स्वयम् । मोगयोगातमात्मायं भवत्प्रत्यारोमः ॥२८॥ न ते गुणा न तज्ज्ञानं न सा वृष्टिर्म नसुखम् । पयोगघोसने न स्यावामन्यस्ततमाधये ॥२३९।। वेवं जगत्रयीमत्र म्यम्तराद्याइव देवताः । समं प्रभाविघानेषु पश्यन्दरं बजेदधः ॥२४॥ ताः शासनाविरक्षा कल्पिताः परमागमे । अतो यशरानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः ॥२४॥ सच्चासनकमक्तीनां सुशा सुवतात्मनाम् । स्वयमेव प्रप्तीदन्ति ता:पुंसां सपुरंपराः ।।२४२॥ तबामबद्ध कराणा रत्नत्रयमहोयसाम् । उमें कामधुर्घ स्यातां बावाभूमी ममोरयः ।। २४३॥ होना विशेष कठिन है वैसे ही नपुंसक-शरीर में आत्मा का विकास विशेष कठिन है ।। २३६ ॥ इसप्रकार पर . ( मुनि ) और अपर ( गणधर ) से भी श्रेष्ठ अर्हन्त देव का ध्यान करनेवाले योगी पुरुप में इन्द्रियों के अगोचर भाव ( अवधिज्ञान-आदि ) अलौकिक लक्ष्मी ( मुक्तिश्री) को देनेवाले प्रकट होते हैं॥ २३७ ॥ जिसप्रकार आकाश स्वयं अमूर्तिक होकर के भी छाया-पुरुष को मध्य में धारण करने से छाया पुरुष हो जाता है। अभिप्राय यह है कि निस्सन्देह कोई निमित्तज्ञानी छाया-दर्शन के अभ्यास से अपने शरोर को छाया का दर्शन करता है और जब छाया विघटित हो जाती है तब आकाश शन्य होने पर भी जमके द्वारा उसमें छायाहोन पुरुष देखा जाता है उसीप्रकार ध्यान के अभ्यास से ध्यानी को अमूर्तिक आत्मा का भी प्रत्यक्ष दर्शन होता है ।। २३८ ॥ ऐसे वे गुण नहीं, वह सम्यग्ज्ञान नहीं और वह सम्यक्त्व नहीं एवं वह यथार्थ सुखं भी नहीं, जो ध्यान के प्रकामवाली व अज्ञानरूपी अन्धकार-समूह को नष्ट करनेवाली विशुद्ध आत्मा में प्रकट नहीं होते। अर्थात्-धर्म व शुक्लध्याम के प्रभाव से आत्मा में समस्त प्रशस्त गुण, केवलज्ञान, परमावगाढ़ सम्यक्त्व व मुक्तिश्री का यथार्थ सुख प्रकट होता है ।। २३९ ।। शासन-देवता की कन्पना जो श्रान्त्रक तीनों लोकों के दृष्टा जिनेन्द्र भगवान् को और व्यन्तर-आदि देवताओं की पूजाविधि में समान रूप से मानता है । अर्थात्-दोनों की एक सरोसी पूजा करता है, वह विशेष रूप से नरकगामी होता है। अभिप्राय यह है कि विवेको पुरुष को पूजाविधि में दूसरे देव जिनेन्द्र-सरीखे पूज्य व सर्वोत्कृष्ट नहीं मानने चाहिए किन्तु उन्हें होन समझना चाहिए। जिनागम में जिन शासन की रक्षा के लिए उन शासन देवताओं की कल्पना की गई है, अतः पूजा का एक अंश देकर सम्यग्दृष्टियों को उनका सन्मान करना चाहिए ॥ २४०-२४१ ।। व्यन्तरादिक देवता और उनके इन्द्र, जिनशासन के अनन्य भक्त, सम्यग्दृष्टि व नती पुरुषों पर स्वयं प्रसन्न होते हैं ।। २४२ ।। स्वर्ग व पृथिबी दोनों ही उनके मनोरथों की पूर्ति द्वारा इच्छित वस्तु देनेवाले होते हैं, जिन्होंने मोक्ष को अपनी कांख में बाँधा है और जो रत्नत्रय से महान हैं ॥ २४३ ।। १. परः अनगारः फेवलः, तस्मात् परः उत्कृष्टः गणघरस्तस्मात् पर जिनः । २. आकाशं । ३. छायानरोत्साहित छायापुरुषो भवतीति शेषः । किल करिवग्निमितीपुरुषः स्वारी रछायावलोकनं करोति, छायावलोकनाभ्यासवशात् काया विपदप्ति, आकाशे शून्येपि नरो दृश्यते, सवत ध्यानाभ्यासात् आत्मा दृश्यते इत्यर्थः । ४. अतिशयेन अधोगामी स्थात, तेन कारणेच अन्यवेवाः जिनसणाः न माननीयाः, किन्तु जिनात हीनाः ज्ञातव्याः इत्यर्थः । ५. न तु जिनयत् स्नपनादिना। ६. मोक्ष ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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