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________________ का स्वरूप प्राज्ञा विचय नामक धर्मध्यान का स्वरूपः ४० वा शल्प अपायविचय का स्वरूप संस्थानविनय का स्वरूप अतपूजाविपाक बिषय का स्वरूप, धर्मम्यान का फल, एक्लध्यान वकल्प ४४०-४४२ का स्वरूप, मोक्ष का स्वरूप, ध्यान करने के योग्य बस्तु प्रोपयोपवास का स्वरूप, उपवास की विधि, उपवास धर्म ध्यानी को क्या विचार करना चाहिये ?, अहेन्त भग के दिन का कत्र्तव्य, उपचार के दिन प्रारम्भ के त्याग का वान् का ध्यान करने योग्य स्वरूप, इसी प्रसङ्ग में "बेश विधान, प्रोषधोपवाग के अतीचार, कायक्लेश के बिना विक, सांख्य व बौद्धदर्णन की मुक्ति-मीमांसा करके उक्त ___ आत्म-शुद्धि नहीं होती एव चारित्र धारक का भानों दार्शनिकों के निर्वाण अनेकान्त शैली के अनुसार माहात्म्प। अन्लोकिक महन्त भगवान् में प्रकट रूप से विद्यमान है। इसका विवेचन, महन्त भगवान का ध्यान करने से लाभ, ४२ वा कल्प पूजविधान' में व्यन्तरादिक देवतामों का अर्हन्त' भगवान के मोग घ परिभाग ( उपमाग ) का लक्षण करके भोग समान माननेवाला मनुष्य नरकगामी होता है, क्योंकि परिमागपरिमारण प्रत का स्वरूप, घम और नियम का बिनागम में जिन-शासन की रक्षा के लिए शासन देवनाओं लक्षण, प्रस्तुत व्रत को सूरगा-प्रादि के माता का निधेष, की कल्पना की गई है, अतः उन्हें पूजा का एक अंश देकर भोगपरिभोगयत के असीचार प्रौन इस व्रत से लाभ उनको सम्मानित करना चाहिए, न कि जिनेन्द्र सरीखी अभिषेक-यादि पूजा द्वाग, निवाम ( निः गृह ) होकार ४३ वा कल्प धर्माचरण करने का विधान'; पंचनमस्कार मन्त्र के ध्यान दान का स्वरूप, दान में विशेषता का कारण, दाता, को विधि तथा महत्व, इस मन्त्र के ध्यान से समस्त उपद्रव पात्र, विधि आर. द्रव्य का स्वरूप, सज्जन दाताबों के धनशान्त हो जाते हैं। लिवा-व्याख्या के कारण लोकिक ध्यान वितरण के तीन उद्देश्य, दान के पार भेद, चारों दानों का का निरूपण; लोकिन ध्यान की विधि, ध्यान का फल, सबसे प्रथम अभयदान देने का विधाना, उसकी प्रशंसा, माहात्म्य साधुनों के लिए ग्राहार-दान देना, नवधा भक्ति, दावा के ___शाला-संसारी जीव शिव ( मुक्त ) है और शिव सात गुण, दाता के विज्ञानगुणा का नमा, किनके गृहों संसारी जीव है। इन दोनों में क्या कुच्छ भेद है ? क्योंकि में साधु वर्ग को प्राहार-ग्रहण नही करना चाहिए ? जोयत्व की अपेक्षा एक हैं, इसका समाधान, प्रात्मध्यान गृहस्थ को दान-पुण्यादि पार्मिक कार्य स्वयं करना चाहिए, के विषय में प्रश्न व उत्तर, शरीर और आत्मा की भिन्नता स्वयं धर्म धारने का फल, मुनियो के माहार-महए के में उदाहरणमाला जसे घी मन्यनादि उपाय द्वारा ती से अयोग्य गृह, जिनदीक्षा तथा आहारदात के योग्य वर्ण, पृपा कर दिया जाता है वैसे ही यह आत्मा भ्यागादि पन-( दान ) पंचक करना चाहिए, मालिकाल में मुनियों उपाय से शरीर से पृषक को जाती है। पारीर माकार और के दर्शन को दुलंमता, प्राधुनिक, मुनियों की पूर्वकालीन मारमा निराकार है इसके ममर्थन में बाहरण-माला; मुनि-सरोख समझकर पूजना चाहिए, पान के तीन भेद, मायुरूपी खम्भे पर ठहरा हुआ यह शरीर ही योगियों का अपात्र का लक्षण और उसे दान देना व्ययं, पात्र-वान से गृह है, योगियों का मन इसी भात्मपान रूपी चन्धुजनों पुण्य, मिथ्पादृष्टि को केवल करुणा बुद्धि से ही कुछ में क्रीड़ा करता है, इन्द्रियों से प्रेरित आरमा मगर ध्यान देना चाहिए, बौद्ध व नास्तिक-आदि के साथ संबंध-विच्छेद, में स्थिर नहीं रहता; अतः धर्मध्यानी को जितेन्द्रिय होना अन्य तरह से पात्रों के पांच भेद और उनका स्वरूप. समयी मावश्यक है। आप्तस्वरूप के ध्यान की विधि, पदमासन, मादि का लक्षण और उन्हें दान देने की प्रेरणा, जिस बोरासन और सुखासन' का जक्षण और ध्यान ही साधु में ज्ञान और तप नहीं है, वह तो केवल संघको विधि। ४१५-४४० स्थान भरने वाला है। योगियों के विनय करने की
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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