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विधि, गुरु के निकट त्याज्य व्यवहार प्रहारदान के लिए साधुओं की परीक्षा करने का निषेध, गुगो को विशेषता में साधु को पूज्यता में विशेषता, गर्मी के लिए धन खर्च करना चाहिए ।
जैनधर्म अनेक पुरुषों के आश्रय से हुआ है. साधुओं के नाम आदि निक्षेप की अपेक्षा चार भेद, नागादि निक्षेपों का लक्षण, राजसदान, तामनदान का लक्ष सात्यिक दान का लक्षण, उत्तम, मध्यम, जघन्य दाग, भक्तिपूर्वक शाक-पात का दान मो प्रचुर गुण्य का कारण, महारानी रखने का आदेश मानत से लाभ,
साधुओं की परिचर्या श्रुत के पाठकों और व्याख्या ताम्रों के लिए निवास स्थान, पाास्त्र व माहारादि की सुविधा देना, क्योंकि उनके प्रभाव में श्रुत का विच्छेद हो जायगा, मुनियों को श्रुत के विद्वान बनाना चाहिए, श्रुत का माहात्म्य, ज्ञान की दुर्लभता, महता, प्रशानी और ज्ञानी में अन्तर ज्ञान के बिना पुरुष अन्वा-सा है, प्रत्येक शास्त्र में स्वरूप, रचना, शुद्धि, मलङ्कार और वर्णन किया हुआ विषय होता है, और स्वरूप प्रादि के दो दो भेद मुनिदान के बतीचार, मुनियों को नमस्कारन्यादि करने से नाम
४४५-४६१
४४ वां कल्प
श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाएं पूर्व प्रतिनामों के चारित्र को पालन करने में स्थित होकर मागे-आगे की प्रतिभाओं का चारित्र पालन करना चाहिए। एवं समस्त प्रतिमानों में रत्नत्रय की भावनाएं एकसरीखों कहीं गई हैं, ग्यारह प्रतिमाओं के नामधारकों में संज्ञामेद, जितेन्द्रिय क्षपण श्रमस्तु माणाम्बर, नग्न, ऋषि, मृति, यति, अनगार, शुचि, निर्मम मुमुक्षु, शंसितत्रत, बाथम, अनूचान, अवाशवान्, पोगो. पंचाग्निसाधक, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, शिखाच्छेदी, परमहंस, तपस्वी, अतिथि दोक्षितात्मा, श्रोत्रिय होता, यष्टा, अध्वर्यु व ब्राह्मण इन मुनियों के नामों की युक्तिपूर्वक निरुक्ति और इसी प्रसङ्ग में पार्थ वेद व चार्य जीविद्या की निरक्ति, धर्म से 'युक्त जातिश्रेष्ठ हैं, पौत्र, बौद्ध, सांप और द्विज की निरुक्तिव स्वरूप, दान के अपात्र व्यक्ति, वेणविरत और सर्वरित को अपेक्षा से भिक्षा के बार भेद ४६१-४६६
४५ व कल्प
परीर को विनाशोन्मुख जानकर समाधिमरण करना चाहिए, शरीरस्था करना श्राश्चर्यजनक नहीं किन्तु संयन घारण प्राश्चर्यजनक है, मनः विनश्वर शरीर के नष्ट होने में शोक नहीं करना चाहिए, शरीर स्वयं समाधि के समय की शापित कर देता है, जब मानवों की गम- दूती-सी वृद्धावस्था आजाय तथ उन्हें जीवन की लालसा क्यों करनी चाहिए ? रामाधिमरण को विधि, यदि अन्त समय मन मलिन हो गया, तो जीवनपर्यन्त किया हुआ धर्माराचन व्यर्थ है, क्रमशः मन का त्याग कर दूष व मट्ठा रख लेखे गुनः उन्हें भो छोड़कर गजल रस लेवें ।
लभ
पश्चात् सब कुछ छोड़ देवे, प्रचानक मृत्यु माने पर यह कम नही, आचार्य-भादि कुशल हो तो समाधि में कठिन या नहीं होती, सल्लेखना के बीचार समाधिमरण से ४६७-४७० कव का लक्षण धर्मकथा करने का पात्र, तत्वज्ञान में बाधक दोष, संमायालु की असफलता, आठ मद, घमण्ड में आकर साधर्मी जनों का निन्दक धर्मघाती है, गुहस्थ के छह धार्मिक कथ, देवपूजा की क्रमिक विधि (चहक्रियाएं), कल्याण प्राप्ति के उपाय, शिष्य कर्तव्य, स्वाध्याय का स्वरूप, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व पानु योग का रुवरूप, जीवसमाम, योग, गुणस्थान व मागंणा इनके प्रत्येक के मदद मेष, चारों गतियों में होनेवाले गुण-स्थानों की संख्या, तप के दो लक्षण, संयम का स्वरूप, कपाय की निरुक्ति और भेदों का लक्षण, अनन्तानुबन्धि रूपाय - सम्यक्त्व की घातक, अप्रत्याख्यान - देशव्रत की घातक प्रत्याख्यान - संयम की घातक और संज्चन्तन-यथाख्यात चारित्र को घातक कोट, मान, माया व लोभ के शक्ति की अपेक्षा वारन्तार भेद और उनके कार्य क्रांत्र का परिणाम, मान, माया और लोभ से हानि, संभय रूपो कोलां द्वारा क्रोध आदि कपा रूपी पाल्यों को निकालने का उपदेश, जितेन्द्रिय होने का उपदेश, विषय के तुल्य हैं, व्रती कर्तव्य, वैराग्य का स्वरूप तत्वचिंतन का स्वरूप, नियम व यम ४:३०-४७८
इसप्रकार सुताचार्य दुबाश गृहस्थ धर्म कहा जाना और भण्डारी देवी, मारिदत्त महाराज व नगरवासी जनीं