SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कष्ठपर्यस्त व मस्तकपर्यन्त स्नान द्वारा बाह्म शुद्धि किंवं फीस मभिषेकी, यज्ञातस्मान, सोलह पाखडीवाले कमल बिना देवपूजा का अधिकार नहीं, प्रशस्त मिट्टी-आदि से की कणिका में अर्हन्त प्रभु को स्थापित करके उनकी पूजा शुद्धि का विधान, प्राचमन निाये बिना गृह में प्रवेश-निषिद्ध, करना व पूजा-फल स्नान करके अपग्रचित्त होकर पवित्र वस्त्र पहनकर मौन stu त संयमपूर्वक देवपूजा की विधि करनी चाहिए, होम में तीर्थकर अहंन्त भगवान् की स्तुति, इसी प्रसङ्ग में भूतबलि का विधान, गृहस्थों के दो यम-लौकिक व पारलो (जिन-स्तुति को आधार मानकर ) जमिनीय मत-ममीक्षा, किक, जातियां व उनकी क्रियाएँ भनादि हैं; विशुद्ध जाति सांख्यदर्शन-मीमांसा, चार्वाक-दर्शन-मीमांसा, कोषिक वालों के लिए जैन विधि, जैनों को वहीं लौकिक विधि दर्शन की मुक्ति मोमामा, सृष्टि कर्तृत्व-मीमांसा, बेद की विधान ( विवाह-पादि ) मान्य है; जिसमें उनका सम्पमत्व ईश्वर कर्तृत्व मान्यता की समीक्षा, बौखदर्शन-मीमांमा, नष्ट नहीं होता और चारित्र भी दूषित नहीं होता बुद्ध के प्रमाणतत्व की मीमांसा व ज्ञानाद्वैतवादी योगाचार ३७६-३७६ (रोवविधोष ) मत-समीक्षा आदि विपपी का ललित व ३५ वी कल्प युक्तिपूर्ण विवेचन। ४०५-४१३ देवपूजा के अधिकारी दो प्रकार के है, अन्य मत की ३८ वा कल्प प्रतिमामों में प्राप्त का संकल्प नहीं करना चाहिए, पुष्पा- जप-विधि, प्रनादि सिद्ध पैतीस अक्षरी वाले पचनमा दिक में जिनेन्द्र देव की स्थापना करने वालों के लिए पूजा- कार मन्य गे जप करने का विधान, जप की माला-आदि, विधि, पंच परमेष्ठी तथा रत्नत्रय की स्थापना की विधि, मन से बचन से जप का विधान, पंच नमस्कार मन्त्र का महन्त की पूजा, सिद्ध को पूषा, आचार्य-पूजा, उपाध्याय- माहात्म्य, जप प्रारम्भ करने के पूर्व सपालीकरण-विधानपूजा, साधु पूजा, सम्मग्दर्शन-पूजा, सम्यग्ज्ञान-पूजा सम्यम् आदि । पारित्र पूजा, दर्शन-मक्ति, ज्ञानमक्ति, चारित्र-भक्ति, प्रहन्तभक्ति, सिद्ध-भक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्ति-भक्ति, ३६ वो कल्प आचार्य-मति ३७६-३६८ यान-विधि, पद्मासन मा खङ्गासन से स्थित होकर उच्छवासनिःश्वास रूप प्राणवायु के प्रवेश व निगम को सूक्ष्म ३६ वा कल्प करते हुए पाषाण-घटित-सा निश्वल होकर घ्यानस्थ होना प्रतिमा में पास-यादि की स्थापना करने वालों के लिए वाहिए, ध्यान, ध्याता व ध्येय का स्वरूप, पगध्यानी का पूजाविधि, अभिऐन, पूजा, स्तुति, जप, ध्यान य परीषह-सहन, ध्यान के योग्य स्थान, सबोज ध्यान ( गृथअतारापना इन छह निधियों के कहने की प्रतिज्ञा, पृषक क्त्ववितर्कगवीचार शुक्लध्यान ) का रूप, प्रबीजध्यान को स्वयं उत्तर दिशा की ओर मुंह करणे स्थिा होने का (एकत्ववितक अवीचार नामक शुक्ल घ्यान ) का स्वरूप, पौर जिन प्रतिमा को पूर्वाभिमुख स्थापन करने का विधान, धर्मध्यानी को अज्ञान-निवृत्ति आवश्यक, ध्यान की दुर्लदेव-पूजा के छह विधि विधान प्रस्तापना, पुराकर्म, स्थापना भता व ध्यान का काल, धर्मध्यान की उत्पत्ति में पांच सग्निषापन, पूजा और पूचाफल, प्रभु की पारसी, जनामिका, काराण; धर्म ध्यान के अन्तराय' ९ दुर्गुण, ध्यानी को शत्रुसबका दावखरामा जिनेमका अभिषेक मित्र में समभाची होने का विधान, पालजल योगदर्शन के धुताभिषेक, पारोग्ण दुग्ध-प्रवाह से जिनाभिषेक, दही ध्यान का निरूपण भोर उसकी समीक्षा, धर्मध्यानी को से अभिषेक, इलायची, लौंग य कलोल ( सुन्ध जड़ी शत्रु-मित्र में समभाव रखने वाला व सत्यवादी होना चाहिए, बूटी ) के चूर्णों के कल्कों से प्रभु का अनिषेक, शुभ्र जल- सात व रौद्रध्यान का स्वरूप और उनके स्पागने का उपदेश, पुर से भरे हुए चार कलशों से प्रभु का जनाभिषेक, गन्धोद दोनों ध्यानों से होने वाला दुष्परिणाम, धर्मध्यान
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy