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________________ चतुर्थ आश्वासः लोलेन्द्रियर्लोकमनोनुकलः स्वामीधनायागम एष पृष्टः । स्वर्गो यदि स्याल्पशुहिसकार्ना सूनाकृता सहि भवत्स कामम् ॥१७५।। मन्त्रेण शस्त्रर्गलपीरनाद्वा बेधा महिश्चापि वपः समानः । स्वर्णी यदि स्यान्मख हिसितानां स्ववानविभिनं किं तु ॥१७६।। मातः, आकर्णयानोपल्यानम्, यन्मयापरेखुरेव विद्यानवधनामहायुपासकावुपधुतम् । तथाहि-किलामण्डलसभायां ब्राह्मणाचरणं प्रति विश्ववमानमनसी द्वो विवौकसाषेतत्परीक्षार्थमेकाछगलच्छलेनापरस्तबाजीवनग्याजेन पाटलिपुत्रपुरयाहिरिफायामवतेरतुः । तस्मिन्नेवायसरे सपश्चागतं पश्वाती छात्राणामध्यापयन्नुपाध्यायः सकलषेदवेदाङ्गोपाङ्गोपवेशा काङ्कायमनामय टिभीका प्राय विधिनुस्तंत्रवाजगाम । ईक्षांचवे च पुरुषेणाधिष्ठितमतीव महावेहमजम् । 'अहो, साधु भवत्ययमजास्तनंधयः खलु पज्ञकर्मण' हरमनुष्याय तं गोधमेवमम्यधात्-'अरे मनुष्य, समानीयता. मित इतोऽपं छागस्तव बेदस्ति वितुमिरछा' इति । पुषधः-'भट्ट, विचिक्रीपुरेवनं यदि भवानिवं मे प्रसादीकरोत्यहागुलीयकम् । उपाध्यायस्तथा विधायापवयं च तं पुरुषमात्मदेशीयं शिष्यमाविशति-'अहो कुशिक परस. बलीयानयममास्तनंषयः । तदतिवनमुपसंग्यानेन बलवानीयतावसितम्। अहमप्येष तवानुपक्मेवागच्छामि ।' तपाचरति सच्छिष्ये स वसुधा कुलिशकोलित हव निषण्णः संभूय सवैरपि तदन्तेवासिभिरुत्यापयितुमशक्मः 'प्रोपन्तामत्रवास्प चित्तवृत्ति के अनुकूल चलनेवाले पुरुषों ने अपने विषयों के पोषणार्थ यह वेद सिद्धान्त रचा है। यदि अश्वमेघआदि यज्ञकर्म में पशु-बध करनेवालों को स्वर्ग प्राप्त होता है तो वह स्वर्ग कसाईयों को विशेषरूप से प्राप्त होना चाहिए' ||१७५।। अथर्वणमन्त्र व संहिता-वाक्य अथवा शस्त्र व कण्ठ-मरोड़ना इनसे यज्ञ-वेदो ( प्रालम्भन कुण्ड ) पर अथवा याग मण्डा के बाह्य स्थानपर जीव घात करना एक सरीखा पाप है। यदि यज्ञ में मन्त्रीच्चारण पूर्वक होमे गए पशुओं को स्वर्ग होता है? तो अपने पुत्र-आदि कुटम्ब वगों से यज्ञ-विधि क्यों नहीं होतो ? ॥१७६।। हे माता ! इस जीव-धात संबंधी दृष्टान्त कथा सुनिए, जिसे मैंने परसों 'विद्यानवद्य' नाम के श्रावक से सुनी थी। सौधर्मेन्द्र की सभा में ब्राह्मणों के आचरण के प्रति विवाद करते हुए दो देवता उनके आचार की परीक्षा के लिए एक बकरा के बहाने से ( बकरा बनकर ) और दूसरा बकरे की जीविका करनेवाले के बहाने से ( बकरा ले जानेवाला शूद्र बनकर ) पटना नगर के समीपवर्ती वन में अवतीर्ण हुए। उसी अवसर पर 'काङ्कायन' नाम का उपाध्याय ( पाठक ), जो कि साढ़े पांच सौ छात्रों को अध्यापन करनेवाला था एवं जिसकी मर्यादा चारों वेद व छह वेदाङ्गों ( शिक्षा व कल्प-आदि । व उपाङ्गों के उपदेश देने में है, तथा जो साटवीं वार यज्ञ करने का इच्छुक था, वहीं आया। उसने महाशूद्र-सहित व विशाल कायवाले बैल-सरीखे बकरे को देखा । फिर यह विचारकर कि 'आश्चर्य है कि यह बकरी का बच्चा निश्चय से यज्ञ फर्म में अच्छा है' उस बोझा ढोनेवाले पुरुष से निम्न प्रकार कहा--अरे मनुष्य ! उस स्थान से इस स्थान पर इस बकरे को लाओ यदि तुम्हारो इसे बेचने की इच्छा है।' फिर बकरा ले जानेवाले मानव ने कहा-'भट्ट ! मैं तो इस बकरे को बेचने का इच्छुक हूँ यदि आप यह मुद्रिका मेरे लिए प्रसन्न होकर अर्पण करें।' फिर उपाध्याय ने मुद्रिका देकर उसे वापिस भेजा और शिष्य को आशा दो। 'अहो 'कुशिक' नामवाले बच्चे ! मह बकरी का बच्चा विशेष बलिष्ठ है, अतः इसे विशेष यत्न पूर्वक दुपट्टे से बांधकर मेरे गृहपर ले जाओ। मैं भी आपके पीछे ही आऊंगा। १. आक्षेपालंकार; 1 २. अपमालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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