SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 434
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ t ३९८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये आयुः प्रजासु परमं भवतात्सदेव धर्मावबोध' सुरभिधिचरमस्तु नृपः । पुष्टि विनेय जनता वितनोतु फार्म हैयंगवीन सवनेन जिनेश्वरस्य ||८४ ॥ ये कर्मभुजङ्गनि विषविषो बुद्धिप्रबन्धो नृणां येषां जातिजरामृतिधयुपरमध्यानप्रपश्चाग्रहः । येषामविशुद्ध योषविभवालोके सतृष्णं मन्दस्ते धारोष्णपयःप्रवाहावरं ध्यायन्तु चैनं वपुः || ८५ ॥ जन्मस्नेहविपि जगतः स्नेहहेतुनि पुण्योपाये "मृकुगुणमपि 'स्वबलात्मबुतिः । चेतोजायं हरवपि दधि प्राप्त जायस्वभावं जंन्दरमानानुभवनवि मङ्गलं वस्तनोतु || ८६|| एलालवङ्गकङ्कोल मलयागमिश्रितैः । पिष्टः 'कस्के: १० कषायंश्च जिनदेहमुपास्महे ||८७॥ १ "नन्द्यावर्त स्वस्तिकफलप्रसूनाक्षताम्बुकुशपूलं । अबतारयामि देवं जिनेश्वरं माश्च ॥८८॥ जिनेन्द्र के घृताभिषेक से प्रजाजनों की आयु सदैव चिरकालीन हो, राजा चिरकाल तक धार्मिक ज्ञान की सुगन्धि युक्त (गुणवान ) हो एवं शिष्यजन-समूह ( भव्य-समूह ) यथेष्ट समृद्धि विस्तारित करे || ८४ ॥ जिन मानवों को वृद्धि की अविच्छिन्नता ( सातत्य ), कर्मरूपी सर्पों को निर्विष करने में प्रवृत्त है। और जिसका जन्म हा धर्मध्यान के विस्तार में प्रगाढ़ अनुराग है एवं जिनका मन आत्मिक विशुद्ध केवलज्ञानरूपी ऐश्वयं के दर्शन के लिए उत्कण्ठित है, वे धारोष्ण दूध के प्रवाह से शुभ्र हुए जिनेन्द्र प्रभु के शरीर का ध्यान करें ।। ८५ ।। दही संसार के जन्म संबंधी स्नेह ( प्रेम - अनुराग ) को नष्ट करनेवाला होकर के भी स्वभाव से स्नेह (प्रेम) का कारण है। यहाँ पर विरोध प्रतीत होता है; क्योकि | स्नेह को नष्ट करनेवाला है, वह स्नेह का कारण कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि दही जिनेन्द्रप्रभु के अभिषेक के माहात्म्य से जगत की जन्मपरम्परा के स्नेह (अनुराग) को नष्ट करनेवाला है और अपि (निश्चय से ) वह स्वभाव से स्नेह (घी) का कारण है । इस प्रकार दही दान के अवसर पर मृदुगुणमपि ( कोमल होकर के भी ) स्तब्धलब्धात्मवृत्ति ( गर्व-युक्त - सदर्प नहीं है ) किन्तु कठिन है । यहाँ पर भी विरोध मालूम पड़ता है; क्योंकि जो कोमल प्रकृति है वह कठिन कैसे हो सकता है ? अतः इसका परिहार यह है कि जो मृदुगुणमणि ( कोमल स्वभाववाला है ) और अपि (free से) स्तब्धधात्मवृत्ति है ( कठिन स्थिर होकर हो जन्म प्राप्त करता है— जमता है) इसी प्रकार जो वेतोजाड्यं ह्ररदपि (चित्त की जड़ता - मूर्खता नष्ट करनेवाला ) होकर के भी प्राप्त जायस्वभावं (मूर्खताप्राप्त करनेवाला) है । यहाँ पर भी विरोध प्रतीत होता है; क्योंकि मूर्खता शून्य में मूर्खता किस प्रकार हो सकती है ? अतः इसका समाधान यह है कि जो चेतोजाड्यं हरत् ( चित्त को जढ़ता - आलस्य ) नष्ट करनेवाला है और आपे ( निश्चय से ) प्राप्तजाड्यस्वभावं ( सघनता प्राप्त करनेवाला या जलस्वभाव ) है, ऐसा दही जिनेन्द्रप्रभु के अभिषेक के माहात्म्य से तुम्हारा कल्याण विस्तारित करे ।। ८६ ।। हम इलायची, लौंग, कोल (मुगन्धि जड़ी बूटी ), चन्दन व अगुरु इनके चूर्णो के कल्कों ( सुगन्धि जलों ) से और पकाकर तैयार किये हुए इनके काढ़ों से जिनेन्द्रदेव के शरीर की उपासना करते हैं ।। ८७ ।। १. सुगन्धः गुणवानित्यर्थः । २ घृतं । ३ पक्षं घृतं । ४. दाने । ५. कोमल मूहालू ? ६. सन किन्तु कठिनं वर्तते । ७. मूर्खस्वं न किन्तु सघनं । ८. मलयं चन्दनं । ९. त्वचूर्णः । १०. पंचप्रकारत्वक्वार्थः । ११. आश्रुत्य स्नपनं त्रिशोप्य तदिलां पीठयां चतुष्कुम्भयुक् कोणामों कुवात्रियां जिनपति न्यस्यान्तमाप्येष्टदिक् । नीराज्याम्बु रसाज्यदुग्धदधिभिः सिक्त्वा कृर्तनम् 1 सिर्फ कुम्भजबच गन्धसलिले सम्पूज्य नृत्त्रा स्मरेत् ॥२२॥ - सागारधर्मा० अ० ६ । *. एलादिचूर्णकल्ककपायैरुव त्यं कृतमन्द्याबधिवतारणं । संस्कृत टो० सागार० वर्मा० ० ६ । १२. शरावपुः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy