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________________ ३८६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये *यनिखिलभवन तायलोचनम्, आत्महिताहितविवेकयापारम्यावबोधसमासावितसमीचीनभावम, अधिगमजसम्यक्त्यारस्नोत्पत्तिस्यानम्, अखिलास्वपि वासु क्षेयशस्वभावसाम्राज्यपरमलाञ्छनम, अपि प 'यस्मिन्निदानीमपि "नबीस्तानचेतोभिः सम्यगुपाहितोपयोगसंमार्जने धमणिमणिवपंण व साक्षावभक्ति से से "भावं. कसंप्रत्ययाः १०स्वभावक्षेत्रसमविप्रकषिणोऽपि भावास्तस्यात्मलाभनिसाधनो भयहेतुविहितविधित्रपरिणतिभिमंसिता. वधिमनःपर्ययकेवलः पञ्चत्योमवस्थामवगाहमानस्य सकलमलविवामिनः पपरमेष्ठिपुरःसरस्य भगवतः सम्यग्ज्ञानरत्नस्याष्टत्तयीमिष्टि करोमोति स्वाहा । अपि च । नेत्रं हिताहितालोके सूत्रं पोसौषसाधने । पानं पूजाविषेः कुर्व क्षेत्रं लक्ष्म्याः समागमे ।।३३।। युक्ति ( दर्शनशास्त्र ) लक्ष्मीरूपी लता को वृद्धिंगत करने के लिए जल है एवं जो सांसारिक भोगरूपी चिन्तामणि को देनेवाला है ।। ३२ ।। सम्यग्ज्ञान-पूजा जो समस्त लोक को जानने के लिए तीसरा नेत्र है। आत्मा के हिताहित के विवेक के यथार्थ जानने से ही जिसे समीचीनता प्राप्त हुई है, जो अधिगमज भम्यग्दर्शनरूप रत्न को उत्पत्ति का स्थान है, क्योंकि अधिगमज सम्यक्त्व में परोपदेश की अपेक्षा होती है। जो आत्मा को समस्त पर्यायों ( नरस व एकेन्द्रियादि ) में भी आत्मा के स्वभाव रूप साम्राज्य का प्रदर्शन चिह्न है, अर्थात्-अनेक नर व नरक-आदि पर्यायों को धारण करसा हुआ यह आत्मा जिस प्रधान चिह्न के कारण अपने ज्ञान स्वभावरूप साम्राज्य चाला कहा जाता है। इसकी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि केवल केलियों के तीर्थ में ही नहीं, अपित इस समय में भो सरस्वतीरूपी नदी में स्नान करने में जिनके चित्त निर्मल हो गए हैं ऐसे विद्वानों द्वारा आरोपित अभ्यास से अपने उपयोग को विशुद्ध कर लेने पर उनके केवलज्ञान में सूर्यकान्तर्माण के दर्पण की तरह स्वभाव से सुक्ष्म परमाणुआदि व क्षेत्र से दूरवर्ती-सुमेह-आदि और काल से दूरवर्ती राम-रावण-आदि स्वात्मा द्वारा अनुभव करने योग्य पदार्थ प्रत्यक्षगोचर प्रतीत होते हैं 1 वह ज्ञान यद्यपि एक है, किन्तु अपनी उत्पत्ति के अन्तरङ्ग और बहिरङ्गकारणों से होनेवाली विचित्र परिणति के द्वारा मति, श्रुत, अबधि, मनः पर्यय व केवलज्ञान के भेद से उसकी पाँच अवस्थाएँ ( भेद ) हो गई हैं, उस समस्त कल्याणों का कर्ता और पंच परमेष्ठी को अग्रेसर करनेवाले । क्योंकि पंचपरमेष्ठी का स्वरूप जाने बिना सम्यग्ज्ञान उदित नहीं होता ) भगवान ( पूज्य ) सम्यग्ज्ञान की आठ द्रव्यों से पूजा करता हूँ। में ऐसे सम्यग्ज्ञान वो पूजाविधिका पाय करताहे. अर्थात-उसकी पजा करता है. जो कि स्मिक हित ओर अहित को प्रकावित करने के लिए तीसरा नेत्र है और जो बुद्धिरूपी महल के निर्माण करने के लिए बढ़ई है एवं जो लक्ष्मी के समागम कराने का स्थान है ।। ३३ ।। १. तृतीय। २. नरक, एफेन्द्रियादिषु । ३. जाने। १. न केवलं केवलिना सीर्थे । ५. सरस्वत्या स्नातचित विद्वदभिः। ६. आरोपिज़ाभ्यासेन कृताज्यले बैनदीस्तातचित्तनः। ७. सूर्यकान्तमकरे । ८.जोवादिपदार्थाः । २. स्वात्मानुभवनीयाः। १०.केचन भावा:स्वभावेन दुराः, केचन क्षेत्रापेक्षया दुराः, केचन कालापेक्षया दूरसरा: तस्य सम्यम्ज्ञानस्य । ११. मतेरन्तरङ्गो हेनुः क्षयोपशमः, वाह तदिन्द्रियानिन्द्रिमं । श्रतस्यान्तरङ्ग क्षयोपशम: वाद्यममिन्द्रियं । अवधेर्वाह्यं भवप्रत्ययः, मनःपर्यमस्य बाह्य क्षेत्रादिक, अन्तरङ्गं शयोपशमः, अवधेश्चापि क्षयोपशममन्तरण । केवलज्ञानस्य बाह्य मानुष्यं, अन्सरनं कर्मणां भयः । इति रि० ख० म ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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